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न शिल्प में सरस्वती की मूर्तियां
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पावों में एक स्त्री सेविका प्राकृति उत्कीर्ण है, जिसके के ऊ भाग में दोनों घोर दो पाववनाथ की प्रासीन हाथ में कमण्डलु चित्रित हैं। देवी के दाहिने घुटने के मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनके मस्तक पर सात फणों का घटानीचे सामने एक उपासक ऋषि माकृति पति है। टोप प्रदर्शित है। पीठिका पर उत्कीर्ण लेख इस चित्रण दक्षिण भारत से प्राप्त होने वाली दूसरी पीतल की प्रतिमा को १३वीं शती में प्रतिष्ठित बतलाया है। को १५वी शती में निर्मित बतलाया गया है । ४.२ ।। ऊंची प्रतिमा में चतुर्भज सरस्वती को कमल पर प्रासीन चित्रित किया गया है जो एक वर्गाकार पीठिका पर स्थित है : पीठिका के अग्रभाग में सरस्वती का वाहन हंस उत्कीर्ण है। देवी के ऊपरी दाहिने और निचले हाथों मे अंकुश और पाश प्रदर्शित है, किन्तु शेष भुजाओंों में अक्ष माता और कोई वृत्ताकार वस्तु चित्रित है। देवी के मस्तक पर स्थित मुकुट के ऊपर कलश उत्कीर्ण है ।
हैदराबाद संग्रहालय को सरस्वती मूर्ति
चतुर्भुज सरस्वती की एक अन्य खड़ी मनोश प्रतिमा दिलबद निद जिले के महर नामक स्थल से प्राप्त होती है," जो संप्रति हैदराबाद संग्रहालय में शोभा पा रही है। अत्यन्त अलंकृत इस मूर्ति में देवी के हांथो मे पुस्तक, अक्षमाला, वीणा और कुश या वज्र चित्रित है । पृष्ठभाग में भामण्डल से युक्त देवी का वाहन इस पीठिका पर उत्कीर्ण है | पीठिका पर सरस्वती के दोनो मोर एक स्त्री-पुरुष प्राकृतियों को मूर्तिगत किया गया है। प्रतिमा
१४. Rao, S. Hanumantha, Jainism in the
Deccan, sour. Indian History, Vol. XXVI, 1948, Pts. 1-3 (Nos. 76-78), p. 47.
इन मुख्य चित्रणों के अतिरिक्त सरस्वती की कई द्विभुज, चतुर्भुज और बहुभुज प्रतिमाए दिलवाड़ा जैन मन्दिरों, कुमारिया, देवगढ़, अचलगढ़, भरतपुर प्रादि स्थलों से उपलब्ध होती हैं, जिनका विस्तृत अध्ययन डा० थू. पी. शाह १५ ने किया है।" इस बात के भी प्रमाण प्राप्त होते है कि सरस्वती को कुछ समय के लिए यक्षिणी के रूप में भी कलित किया गया था, जो स्वरूप शिल्प में, मुख्यतः मध्यभारत में ही प्रति रहा है किन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि दक्षिणी के रूप मे विद्या और बुद्धि की देवी सरस्वती से उसका कोई संबंध नही होता है। चित्रण देवगढ़ से एक ऐसा विषण उपलब्ध होता है जहाँ इसे तीर्थंकर अभिनन्दन की यक्षिणी के रूप में अ ंकित किया गया है। इस बात की पुष्टि पीठिका पर उत्कीर्ण लेख से होती है। ऐसे ही १०७० ईसवी मे तिथ्यांकित एक चित्रण में सरस्वती को छठे पद्मप्रभ की यक्षिणी के रूप में उत्कीर्ण किया गया है। काफी कुछ ण्डित यह प्रतिमा ब्रिटिश संग्रहालय लदन में संगृहीत है ।
१५. Sec. U. P. Shah's Iconography of Jain Goddess Sarasvati, JUB, Vol. X, (New Series) Pt. 2 Sept. 1941, pp. 195-217.
धरती में धनाज बोते समय किसान को कुछ आत्म विश्वास की आवश्यकता होती है। वह सुन्दर मूल्यवान भविष्य पर भरोसा जो करता है । तब क्या धर्म का श्राचरण करने के लिये मानव को प्रात्म-विश्वास की आवश्यकता नहीं होती ? श्रात्म-विश्वास के बिना उसका धर्माचरण भी ठीक नहीं हो पाता ।
क्या तूं महान बनना चाहता है यदि हां, तो अपनी घाशा लताओं पर नियंत्रण रख, उन्हें बेलगाम अश्व के समान धागे न बढ़ने दे। मानव को महत्ता इच्छाओं के दमन करने में है, गुलाम बनने में नहो । एक दिन श्रायेगा जब तेरी इच्छाएं ही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगी ।