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हरप्पा तथा जन धर्म
करना उतना ही पधिक कठिन है जितना कि इसके लिए "रुद्र प्राणियों का पधिपति है।" तृतीय सहस्रामि ई. पू. की पूर्ववर्ती तिथि का निषेध
मोहनजोदडो मुद्रा की ऋग्वेद से प्राप्त उपरिनिर्दिष्ट करना । अवसर इस प्रकार समान है।
व्याख्या के प्रालोक मे वर्णनान्तर्गत मूर्ति की पहचान चलिए अब हम वर्णनान्तर्गत मूर्ति के विषयीगत ऋग्वेद के संकेत द्वारा सरल हो जानी चाहिए। मई, तथा विषयगत मूल्यों को निर्धारित कर लें। इसका जन तथा जुलाई के महोनों में प्रफगानिस्तान के लिए विषयीगत मूल्य तो पहले ही देख लिया है। यह एक पुरातात्विक अभियात्रा का नेतृत्व करते हुए, इस लेख मान देव की है जो सुनिमित पृष्ठ भाग से मुक्त कन्धों के लेखक को युमान् चुप्राङ (६००-६५४ ई.) के लेखों तथा सुस्पष्ट दैहिक अंगों से युक्त प्रप-स्थिति के तत्व के सत्यापन के अवसर प्राप्त हुए, जिनके पफगानिस्तान में सीषा खा है, जिससे यह अभिव्यक्त होता है कि तथा अन्य क्षेत्रों में की गई यात्रा के विवरण विविधता प्रतिमाम-संघात में जीवन की गति एक सुनियमित तथा तथा वैज्ञानिक एवं मानवीय मभिरुचि के तथ्यपरक लेख सुनियन्त्रित सुहाट्य क्रम में हो रही है। नियन्त्रण के है। उनका होसिना गजनी प्रथवा गजना, हजारा अथवा साप शिश्न-मुद्रामों की संगतियाँ एक जिन [इनिप- होसाला का वर्णन मत्यधिक महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, विजेता की धारणा को बल देती है। इसके विरोध में, "यहां अनेक तीर्थक नास्तिक हैं, जो शुन देव की भाराकोई व्यक्ति मोहनजोदड़ो से प्राप्त तृतीय सहस्राब्दि ई. धना करते हैं।" "जो उसका श्रद्धापूर्वक माह्वान करते पू० की उस खुदी हुई मुद्रा' का अध्ययन कर सकता है हैं उनकी मनोकामनामों की पूर्ति हो जाती है। दूर तथा जिसमें मनुष्यों प्रादि मत्या, गैण्डा, महिष, व्याघ्र, हाथी, निकट दोनों ही प्रकार के स्थानों के लोग उसके प्रति गहन कूरग, पक्षी तथा मत्स्य आदि जन्तुग्रो के मध्य ध्याना- भक्ति-भावना का प्रदर्शन करते हैं। उच्च तथा निम्न वस्था में बैठे हुए रुद्र-पशुपति-महादेव का चित्रण समान रूप से उसके धार्मिक भय से प्राप्लावित है ।... किया गया है और जिसमे उत्थित [उर्ध्व-रेयस् ] का अपने मन के दमन तथा प्रारमयातना द्वारा तीर्थक स्वर्ग प्रदर्शन सर्जनात्मिका क्रिया की उर्वगामिनी शक्ति की की शक्तियो से पुनीत सूत्र प्राप्त करते है, जिनसे वे रोगो अभिव्यक्ति के लिए किया गया है। मोहनजोदडो मुद्रा पर नियन्त्रण करते है और रोगियों को रोग-मुक्त कर मे प्रदृष्ट, इस देव के प्रतिमा-विज्ञान की पूर्ण व्याख्या देते है।" शुन देव (शुन अथवा शिश्न देव) सम्भवतः ऋग्वेद को निम्न ऋचापो से हो जाती है :
कोई तीर्थकर अथवा तीर्थपुर अथवा उनके अनुयायी थे, २. ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनां ऋषिविप्राणां जिन्होने अहिंसा के सन्देश के लिए जैनधर्म के देवकुल महिषो मुगाणां।
को दीप्तिमान किया। युमान् चुपाङ् का लेख अफश्येनो गधानां स्वधितिर्वनाना सोमः पवित्र गानिस्तान में भी जैनधर्म के प्रसार का साक्षी है । बुद्ध प्रत्येति रेभन् ॥ ६६६६
के जीवन वृतान्त में हम यह पढ़ते है कि बुद्ध के विरोधियो "देवो मे ब्रह्मा, कवियों का नेता, तपस्वियो का मे ६ प्रमुख प्रथवा तीर्थक थे-पुप्राण, कस्साय, गोसाल, ऋषि, पशुप्रो मे महिष, पक्षियों में बाज, ग्रायुधो मे कच्चायण, निगन्थ नाथपुत्त तथा सञ्जय । हम गोसाल परश, सोम गाता हुमा छलनी के ऊपर से जाता है।" में प्राजीविक पन्थ के गोसाल तथा निगम्थ नाथपुत्त में २. त्रिषाबडो वषभो रोरवीति महोदेवो मानाविवेश ।।
अन्तिम एवं २४वें जैन तीर्थकर महावीर की पहिचान ऋ० ४१५८३
कर सकते है। प्रतः शुन देव के रूप मे युमान् चुप्राङ् "त्रिधा बद्ध वृषभ पुनः पुनः रम्भा रहा है-महादेव
कृतदेव का वर्णन इस बात की पोर सकेत करता है कि पूर्णतया मयों में प्रविष्ट हो गया।"
वे सम्भवतः नग्न देव जैन तीर्थङ्कर की भोर सकेत कर ३. रुद्रः पशूनामषिपतिः ।
रहे हैं, क्योकि तीर्थक शब्द तीर्थकरों प्रथवा तीर्घरों को १. कैम्ब्रिज हिस्टरी प्रॉफ इण्डिया, १९५३, प्लेट २३ । ही योतित करता है। अफगानिस्तान में जैनधर्म का