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१६., २४,कि.४
अनेकान्त स्तनाप पृथक रूप से काटे गये थे और संश्लेषण-सामग्री केप्रति पूर्णतया निमुक्त दैहिक अंगों द्वारा प्राध्यात्मिकता द्वारा स्थर किये गये। नाभि चषकाकार है। बायें उरु. नियन्त्रित शक्ति एवं सर्जनात्मिका क्रिया से मानवता को भाग पर एक छेद किया गया है। दूसरी स्थिर मूर्ति यह पाठ पढ़ाती हैं कि अहिंसा ही मानवीय दुःखों के लिए "अप स्थित" के भाव में एक सुपुष्ट युवा को प्रस्तुत एकमात्र निदान है [हिसा परमोधर्मः] । चूंकि हड़प्पा करती है, जिसमें मांसपेशी वाले प्रदेशों का चित्रण साव- की मूर्ति ठीक उपरिवणित विशिष्ट मुद्रा में है, इसलिए धान निरीक्षण, शैली के संयम एव पृथुता के साथ किया इसमें चित्रित देवकी यदि हम तीर्थकर अथवा एक यश गया है, जो मोहनजोदड़ो की उत्खात मुद्रामों की एक तथा तप की महिमा [तपो महिमा] से मण्डित जैन उल्लेखनीय विशेषता है । नत्यरत मूर्ति इतनी अधिक तपस्वी से अभिन्न मान ले तो गलत न होगा। यद्यपि सजीव एवं अभिनव है कि मोहनजोदड़ो मृति-समदाय इसके वक्त-२४००-२०००ई० पू०-के विषय मे कुछ की मृत नियम-निष्ठता से उसकी कोई संगति नहीं पुरातत्त्ववेत्ताओं में मतभिन्य है, मोहनजोदड़ो से उपबैठती । यह महालिंगी प्रतीत होती है जो इस लब्ध कुछ मिट्टी की बनी मूर्तियों तथा कुछ खुदी हुई सुझाव को बल प्रदान करता है कि यह पाश्चा- मुद्रानों पर किये गये चित्रणों से इसे भिन्न करने वाला त्कालिक नटराज-शिव के नत्यरत रूप-के आदि कोई भी शैलीगत तत्त्व नहीं है। इस प्रसंग में, इस मूर्ति रूप का प्रतिनिधित्व कर सकती है। सभी कलासमी- के विषय में सर मोटिमेर व्हीलर के अपने 'इण्डस वैली क्षको ने यह घोषणा की है कि अपनी विशुद्ध सरलता सिविलजेशन' [कैम्ब्रिज हिस्टरी ऑफ इण्डिया, १९५३), एव भावना के कारण, जिनमें कि इन दोनों श्रेष्ठ कृतियों पृष्ठ ६६, पर प्रकाशित विचार उद्धरणीय है :की कोई भी तुलना नही, इनका निर्माण हेल्लास के "ये दो मतियां, जो सुरक्षित रूप मे ऊँचाई में ४" महान युग से पूर्व का नहीं है।
से भी कम ही है, नर धड है जिनमे प्रतिमान की उस "अग्र-स्थिति" के भाव में विद्यमान प्रस्तर-प्रतिमा संवेदनशीलता एवं जीवटता का प्रदर्शन है जो उपरिप्राचीन भारतीय कला के विषय से एक प्राथमिक सत्यता विचारित कृतियो म सर्वथा अनुपलब्ध है। उनकी विशेषकी भी स्थापना करती है, अर्थात यह कि भारतीय कला ताएँ इतनी अधिक अमाधारण है कि इस ममय सिन्धुको जडें उतनी ही दृढ़तापूर्वक प्रकृति मे जमी हुई है काल के साथ उनके सम्बन्ध के प्रामाण्य के विषय में कुछ जितनी कि वे इसके सामाजिक वातावरण तथा इसकी सन्देह अवशिष्ट रहना चाहिए। दुर्भाग्यवश उनके अन्वेमलौकिक उत्पत्ति मे भलीभांति सस्थित है। यह एक षणो द्वारा प्रयुक्त तकनीकी विधियां ऐसी नही थीं जिनसे युगपदेव जितेन्द्रियता द्वारा उपलब्ध, बहिविक्षेप के लिए कि सन्तोषजनक स्तर प्रमाण प्राप्त हो सकें; और ये नही बल्कि अन्तर्दष्टि जन्य शान्ति के लिए उपयोगी बल कथन कि उनमे से एक, नतंक [की मूति], हडप्पा में तथा सरचनात्मक क्रिया के समग्र गुणों से समन्वित देव
अन्न भण्डार-स्थल पर प्राप्त हुई थी तथा दूसरी उसी का अकन करती है। यह वस्तुत: वही चीज है जिसे हम
सामान्य क्षेत्र में घरातल से "४'-१०" "नीचे उपलब्ध जैन देवों तथा तीर्थकरों से सम्बद्ध पाते है. जिनकी मैसूर ई. स्वयं में अन्तर्भेदन की भावना का बहिष्कार नहीं में श्रवण बेलगोल, कार्कल तथा वेणूर स्थानों पर उप. कर पाते है। किसी परवर्ती काल से सम्बद्ध कर देना भी लब्ध विशालकाय प्रतिमाएं लोगों का ध्यान आकर्षित कठिनाई से मक्त नहीं है, और सन्देह का समाधान तो करती हैं। मैसुर मे श्रवणबेलगोल में उपलब्ध जैन तीर्थ- केवल इसी प्रकार की प्रागे होने वाली तथा प्रोर अधिक करों तथा बाहबली मावि जैन तपस्वियों की विशालकाय पर्याप्त रूप मे तथ्यबद्ध तुलना के योग्य खोजों से ही हो प्रतिमा दैहिक प्रयास द्वारा प्राप्त जितेन्द्रियता से, अहिंसा के सकता है।" रेशमी वाद्वारा तथा मौलिक एवं जन्मजात स्थिति की यद्यापि, सर व्हीलर के उपसंहारात्मक टिप्पणों से यह निन्त नग्नता में जलवाय तथा नातु की करोग्तानों स्पष्ट है कि इस मति को किसी परवर्ती काल से सम्बद्ध