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________________ १६२, बर्व २४ कि. ४ अनेकान्त प्रागमन निश्चय ही एक देवी ज्ञानोद्घाटन है। काय मूर्तियों में अमर बना दिया गया है-में एक पूर्ण शुन देव शब्द सम्भवतः शुन प्रयया शिन या शिश्न जैन तीर्थङ्कर को पहिचान रहे हैं। हडप्पा अथवा देव शब्द के लिए प्रयुक्त है। ऋग्वेद तक पीछे पहुँनने मोहनजो-दडो के युग जैसे प्राचीन काल (तृतीय सहस्राब्दि पर हम पाते है कि ऋग्वेद शिश्न देवों के रूप मे नग्न ई० पू०) मे कायोत्सर्ग सदृश एक पश्चात्कालिक जैन देवों की पोर दो मन्त्रो में संकेत करता है, जिन मे नग्न प्रतिमा सम्बन्धी सुघट्य मुद्रा के दर्शन करके किसी को देवों (शिश्न देवों) से वैदिक यज्ञों की रक्षा के लिए इन्द्र आश्चर्य हो सकता है । निश्चय ही, एकमात्र नितान्त का आह्वान किया गया है : नम्नता तथा अहिंसा के मूल मत जैन सिद्धान्त के अवगमम १. न यातव इन्द्र जूजवर्नो न वन्दना शविष्ठ वेद्याभिः । के लिए सम्पूर्ण भौतिक चेतना के प्रान्तरिक उत्सर्ग की सशर्षों विषुणास्य जन्तोर्या शिश्नदेवा अपिग धारणाएं ही ऐसी एक मुद्रा की प्रेरक हो सकती हैं। ऋतं नः ।। ७।२२।५ हड़प्पा में उपलब्ध, वर्णनान्तर्गत मूर्ति में हम यही मुद्रा "हे इन्द्र ! हमें किम्ही बुरी शक्तियों अथवा राक्ष- पाते हैं। इस प्रकार इस विचारधारा में एक सातत्व सियों ने प्रेरित नहीं किया है। हे शक्तिमान देव ! अपने एवं एकत्व विद्यमान है भोर मूर्ति में कोई भी अन्य साधनों द्वारा हमारा सत्य देव शत्रुनों के भशिष्ट जन- प्रतिमा-विज्ञान सम्बन्धी बातें ऐसी नहीं मिलती जो भ्रम सम्मदं का दमन करे । नग्न देव (शिश्न देव) हमारे उत्पन्न करें प्रयवा हमें (इस धारणा से) विमुख कर पवित्र यज्ञ अथवा पूजा तक न पहुँचें।" सकें। नग्न मुद्रा अपने देव महादेव रुद्र> पशुपति के २. स वा यातापदुष्पदा यन्त्स्वर्षाता परिषदत्सनिष्यन् । उर्व मेड़ के रूप में-ऐसी मुद्रा जिसे हम मोहनजोदड़ो मनर्वा यग्छतदुरस्य वेदो नञ्छिश्नदेवा अभिवपसाभत की सेलखड़ी की मुद्रा में चित्रित पाते हैं-किए गए १०६३ वैदिक वर्णन के सर्वथा विरोध में स्थित है (कैम्ब्रिज "सर्वाधिक मङ्गल मार्ग पर वह (इन्द्र) युद्ध के लिए माफ इण्डिया, २६५३, प्लेट २३)। जाता है । उसने स्वर्ग की ज्योति प्राप्त करने के लिए २४ जैन तीर्थङ्करों का कालक्रम का इतिहास तथा परिश्रम किया, जिसकी प्राप्ति से पूर्ण प्रानन्द की प्राप्ति उनकी क्रमागतता हड़प्पा की मूर्ति को काल के मार्ग में होती है। उसने सौ द्वारों से युक्त दुर्ग की निधि को अवरोध नही हैं। तीर्थङ्करों की वर्तमान सूची (वर्तमान कौशल द्वारा, बिना रोके हुए, नग्न देवों (शिश्न देवों) तीर्थङ्कर) के अन्तर्गत २४ है, जिनमे हमें मालूम है कि को (इस कार्य में) मारते हुए ग्रहण की।" महावीर बुद्ध के समसामयिक थे, जो छठी शताब्दी ई. मैक्डॉनल, अपने वैदिक माइथोलाजी, पृष्ठ १५५, पृ० मे हए । २३वे तीर्थकर पाश्वनाथ महावीर से १०० में कहते है कि शिश्न देवों की पूजा ऋग्वेद के लिए घृणा वर्ष से अधिक पहले हए, और २२वे तीर्थङ्कर नेमिनाथ का विषय थी। इन्द्र से शिश्न देवों को वैदिक यज्ञों में महाभारत के यशश्वी पाण्डवो के सखा भगवान कृष्ण के आने देने के लिए प्रार्थना नही की गई है, इन्द्र के विषय पितृव्यज थे । मोटे तौर से गणना करने पर भी भगवद्में कहा गया है कि उसने शिश्न देवों का उस समय वध गीता के भगवान कृष्ण के समकालिक नेमिनाथ के लिए किया जबकि उसने १००द्वारों वाले एक दुर्ग मे गुप्त हमें हवीं शताब्दी ई०पू० जैसा एक काल प्राप्त होता खजानों को चोरी-छिपे देखा। है। पाण्डवों की गतिविधियों को दोला, मेरठ के समीप ये दो ऋचाए हमारे समक्ष इस सत्य को प्रकाशित स्थित हस्तिनापुर मे सम्पन्न हुपा है। अभी हमे क्रमाकरती हैं कि सम्भवतः हम हड़प्पा की मूर्ति में दैहिक गतता के क्रम में नेमिनाथ के पूर्ववर्ती २१वें तीर्थङ्कर को स्याग (कायोत्सर्ग) की विशिष्ट मुद्रा-जो एक ऐसी भी सकारण बतलाना है। यदि हम मानुपातिक रूप से मुद्रा है जिसे श्रवणबेलगोल, कार्कल, वेणूर प्रादि स्थानों प्रत्येक तीर्थर की तिथियों को पीछे खिसकाते जाएँ तो मेंजैन तीर्थंकरों तथा सिद्धों की पश्चात्कालिक विशाल- हम पाएंगे कि प्रथम तीर्थहर, जिन्हें वृषभदेव नाम से
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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