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हरप्पा सपान पर्व
मी पुकारा जाता है, तृतीय सहस्रादि ई.पू.केपन्तिम बात है कि इसके सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं हो सकता, चरण के प्रवेशद्वार पर स्थित हैं। वर्णनान्तर्गत मति का क्योंकि जैन धर्म का यह केन्द्रीभूत सिद्धान्त है कि नितान्त समय पालोचकों ने २४००-२००० ई० पू० के मध्य नग्नता पवित्रता का एक अनिवार्य तत्त्व है । यदि ऋग्वेद निश्चित किया है। जैन धर्म के प्रवर्तक, प्रथम तीर्थकर वैदिक देवों में से एक देव इन्द्र की सहायता का शिश्न पादिनाथ का वृषभ नाम से युक्त होना भी महत्वपूर्ण है, यो अति न क्योकि ऋग्वेद की ऋचामों में इस बात की भावत्ति को माह्वान करता है तो यह मुस्पष्ट है कि ऋग्वेद केवल एक गई है कि एक महान देव के पागमन को अन्तर्भत करने ऐतिहासिक तथ्य को इतिहास-बद्ध कर रहा है, अर्थात् बाल महान् सत्यों की उदघोषणा का कार्य वषभ ने ही वृषभदेव सदश जैन धर्म की विचारित तथा प्रवेशित सम्पादित किया :
उत्पत्ति वैदिक यज्ञों से सम्बद्ध पशयज्ञों का मन्त करने त्रिषा बखो वृषभ रोरवीति महो देवो मानाविवेश ॥
के अभिप्राय के साथ हुई। सबके विश्वास को प्राप्त
करने तथा मानवता को अपने सन्देश के प्रति विश्वासवषभदेवापरनामा प्रादिनाथ द्वारा वैदिक यज्ञों तथा यक्त करने के लिए प्रथम तीर्थकर ने वस्त्र फक डाले भार पशुपति के प्रति सर्वथा विरोध की भावना से एक नये इस प्रकार स्वयं तथा अपने अनुयायियों को दहिक या धार्मिक मत की स्थापना जैन धर्म के जीवन काल में हुई (कायोत्सर्ग) के साथ प्रारम्भ होने वाले प्रात्मयज्ञ के प्रथम मूलभूत घटना है। बाद की घटनाओं तथा मादि- प्रति शभ्र प्रकाश के लिए अनावृत कर दिया। दूसरे नाथ के अनुयायियों-तीर्थङ्करों तथा सिद्धों ने उनके तीर्थङ्करों ने इस सिद्धान्त को स्थायित्व प्रदान किया, मत को एक दृढ़ चक्र-अहिंसा के चक्र-पर स्थापित इसकी प्रानन्दप्रद कहानी जैन धर्म की सेवा में रत किया और उसे गति प्रदान की; काल तथा स्थान में भारतीय कला मानवता के समक्ष प्रस्तुत करती है । प्रत. अपनी गति के साथ-साथ उसने विदलयो (electric एवं वर्णनान्तर्गत मूर्ति जैन धर्म के इस विचार का, coils) की भांति शक्ति प्राप्त की तथा वातारण को सम्भवतः इसके बिल्कुल प्रारम्भ के समय का एक शानको "अहिंसा परमो धर्मः" की गंज से भर दिया। दार प्रतिनिधि नमूना है।
वृषभदेव का नग्नत्व एक इतनी अधिक सुविदित
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