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अनेकान्त
पावपुर नगर के बाहर उन्नत भूमि खण्ड (टीले) समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वरं पर कमलों से सुशोभित तालाब के बीच में निष्पाप वर्ष
जिनेन्द्रनिर्वाण विभूतिभक्तिभाक् ।२०। मान ने निर्वाण प्राप्त किया।
भगवान महावीर भी निरन्तर सब प्रोर के भव्य प्राचार्य जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' में भगवान के समह को संबोधित कर पावा नगरी पहुँचे और वहां के निर्वाण का जो वर्णन दिया है, उससे एक विशेष बात पर 'मनोहरोद्यान' नामक वन में विराजमान हो गये । जब प्रकाश पड़ता है कि उस समय देवतानों और मानवों ने
चतुर्थकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रहे, तब अधकारपूर्ण रात्रि में जो दीपालोक किया था, उसी की
स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमास्या के दिन प्रात:काल के स्मृति में प्रतिवर्ष 'दीपावली मनाई जाती है। प्राचार्य
समय स्वभाव से ही योग निरोध कर घातिया कर्मरूपी ने 'हरिवश' की रचना शक सं० ७०५ (ई० सन् ७८४) हुन्धन के समान प्रधातिया कर्मों को भी नष्ट कर बन्धन में की थी। इतनी प्राचीन रचना में इस प्रकार का रहित हो ससार के प्राणियों को सुख उपजाते हुए निरन्तउल्लेख प्राप्त होना ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्व- राय तथा विशाल सुख से रहित निर्बन्ध-मोक्ष-स्थान को पूर्ण है और उससे महावीर-निर्वाण के समय जो स्थिति प्राप्त हए। गर्भादि पाँच कल्याणको के महान अधिपति, थी, उसका चित्र हमारे समक्ष स्पष्ट हो उठता है । पुराण- सिद्धशासन भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के समय कार का मूल उल्लेख इस प्रकार है :
चारो निकाय के देवों ने विधिपूर्वक उनके शरीर की 'जिनेन्द्रवीरोऽपिविबोध्य सन्ततं
पूजा की। उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई समन्ततो भव्यसमूहसन्ततिम् ।
हई देदीप्यमान दीपको की पक्ति से पावानगरी का प्रपद्य पावानगरी गरीयसी
का प्राकाश सब ओर से जगमगा उठा। उस समय से मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥६६।१५।।
लेकर भगवान के निर्वाण कल्याण की भक्ति से युक्त चतुर्थकालेऽचतुर्थमासके.
संसार के प्राणी इस भारत क्षेत्र में प्रति वर्ष प्रादर पूर्वक . विहीनताविश्चतुरम्दशेषके ।
प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा सकातिके स्वातिषु कृष्णभूत
करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात उन्हीं की स्मृति में सुप्रभात सन्ध्यासमये स्वभावतः ।।१६। दीपावली का उत्सव मनाने लगे। प्रघातिकर्माणि निल्योगको
प्राचार्य वीरसेन विरचित 'जयधवला' टीका में भवविधूय घातीन्धनवद्विबन्धन ।
वान महावीर के निर्वाण के प्रसग में निर्वाण स्थान के विबन्धनस्थानमवाप शंकरो
स्थान के साथ उनकी मुनिःप्रवस्था की काल गणना भी निरन्तरायोरुसुखानुबन्धनम् ।।१७॥ दी है :स पञ्चकल्याणमहामहेश्वरः
'पासा णूणतीसं पंच य मासे य वीस दिवसे य । प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुविधः ।
चउविह अणगारे हि पदारह दिणेहि (गणेहि) शरीर पूजाविधिना विधानतः
विहरित्ता ।।३०।। सुरैः समभ्ययंत सिद्धशासनः ।।१८॥ पच्छा पावाणयरे कत्तिय मासस्स किण्ह चोद्दसिए । ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया
सादीए रत्तीए सेसरय छेत्तु णिवायो ।।३।। सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया।
___ जयघवला भाग १, पृ० ८१ तवा स्म पावानगरी समन्ततः
२६ वर्ष ५ मास और २० दिन तक ऋषि, मुनि, प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥१६॥ यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों और १२ ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात
गणों अर्थात् सभानों के साथ विहार करके पश्चात् भगवान प्रसिद्ध दीपालिकयात्र भारते। महावीर ने पावा नगर में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन