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जन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद
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गया है कि प्रतिष्ठा प्रतिष्ठित व्यक्ति अथवा पदार्थ के माने, जैसा कि इसे उके साथ प्रतिष्ठित करने के बाद माहात्म्य तथा प्रभाव की मान्यता को अभिव्यजित करने मूतियो से विदित होता है। यह स्थापना (न्यास) ही वाले (पवित्रीकरण के) नत्सव के अतिरिक्त कुछ नही है प्रतिष्ठा हे (तुलना कीजिए, (श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य व्यव(प्रतिष्ठा नाम दाहनं वस्तुनश्च प्राधान्यमन्य वस्तुहेतुकं हारप्रसिद्धये स्थाप्यस्य कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरतो न्यासगोचरे कर्म)। एक यति उस सम्य प्रतिष्ठित कहा जाता है साकारे वा निराकारे विधिना यो विधीयते न्यासस्तविदजबकि वह एक प्राचार्य की प्रवस्था में प्रविष्ट हो जाता मुक्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा)। यह सिद्धान्त जैन धर्म है, एक ब्राह्मण वैदिक मन्त्रो के अध्ययन से प्रतिष्टित के अन्तर्गत नरदेवों के सिद्धान्तो से पूर्णतया मङ्गत है, होता है। एक क्षत्रिय अपनी शासकीय गरिमा में प्रवेश क्योकि उच्चतम देव जिन मुक्त मानव है तथा वे पत्थर करने से, एक वैश्य व्यापार-वृत्ति मे प्रविष्ट होने से, एक. या लकडी के टुकडे में अवतरित नहीं हो सकते, जैसा कि शूद्र शासकीय कृपा का प्राप्तकर्ता होने से पोर एक कला- उदाहरण स्वरूप, प्रास्तिक हिन्दू धर्म के विष्णु शिव मादि कार उनमे प्रधान रूप से माने जाने से, और वे इस की कल्पित अतिमानवीय शक्तिया से युका सर्वथा दिव्य मान्यता के अवसर पर माथे पर लगाये गये तिलक प्रादि व्यक्तियो के सम्बन्ध में सम्भव है। दोनों पद्धतियो मे द्वारा पूजित होने है। इमसे यह अभिव्यजित नहीं होता वही मूलभूत भेद है, जिसे जन प्रतिमानो के प्रतिमाकि ये चिह्न स्वयं सम्बन्धित व्यक्ति अथवा पदार्थ पर विज्ञान के किसी भी अध्ययन में मानना श्रावश्यक है। कोई भौतिक प्रभाव डालते है प्रत्युत वे इस मान्यता के जैन धर्म की तर्क युक्तता यह सकत करने तक आगे बढ़ प्रतीक है तथा उन्हे दार्शनिक रूप से सङ्गत मानना जाती है कि स्वय आकाश या झभावात या विद्यत् में चाहिए। दूसरे शब्दो में, प्रतिष्ठा जिनकी गुणगान का ब्राह्मणधर्मीय अर्थ मे देवनब विद्यमान नही है प्रत्यत न्यास या दान अथवा बिना किसी रूप के इसका ध्यान प्राकृतिक अथवा वैज्ञानिक स्वरूप ही उपरिवणित वस्तूमों है। इस प्रकार की स्थिति में या तो जिन का शरीर ही से सम्बद्ध क्रिया-कलापो के लिए उत्तरदायी है। वायु में गुणसमुच्चय मे निमग्न कर दिया जाता है या गुणदेव के विद्यमान कुछ निश्चित स्थितियो (अन्तरिक्खम्) के कारण व्यक्तित्व को निभान्न कर जान है। इसी प्रकार किसी ही वर्षा होती है, इससे गम्बद्ध की ना कने योग्ग किन्ही रूप से यक्त या रहित (घटितस्याघटितस्य), पत्थर प्रादि दिव्य शक्तियों के वारण न.।। अब यह कहना मिथ्या में से खुदी हुई तथा जिन, व विष्णु, द चण्डी, क्षेत्र- है कि "प्राकारा :. :', 'गर्जन या भझावात का पाल प्रादि के नामो से अभिहित प्रतिम,यो की पूजा केवल देव", "विद्यदर- 'वा करने वाला देव" प्रादि है, तथा उनमे कल्पित देवत्व के मन्निवेश के कारण ही की जाती
किसी श्रमण अथव। श्रमणी को ऐसे वचन का परिहार है। भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिक तथा वैमानिक वर्गों के करना चाहिान को
करना चाहिए, किन्तु कोई भी व्यक्ति इसकी अपेक्षा यह
यति देवो के इस प्रकार अपन दिव्य स्थायित्व से युक्त रूप में ।
कहेगा कि 'वायु . गुह्य का अनुयागी : एक मेघ एकत्रित माना गया है, जो इन प्रतिमामो में व्यक्त किया गया है। रोमगा है अथवा मीत - 17 गाया।' और इसी प्रकार सिद्धों, प्रहंतों ग्रादि की प्रतिमानो की
पुरुषविध निरूपण से युक्त ईश की प्रतिमा फिर भी प्रतिष्ठा तथा गृह्य जलाशयों तथा कुपो के पवित्रीकरण
करण जैन-परम्परा म बहुत प्राचीन है। खारवेल क अभिलेख
: तक मे ऐसी वस्त जिस पर बल देना अभिप्रेत होता है में एक जैन प्रतिमा का मन नाटो के यस तक के प्राचीन सम्बद्ध देवों के दिव्य गुणो अर्थात् विभूतियों की अभि- समय मे तीर्थहरो की प्रतिमानो के अस्तित्व को सिद्ध व्यक्ति है, इन प्रतिमानो में था इनके माध्यम से उनका
करता है। जैसा कि कल्पसूत्र में उल्लिखित है, कुछ वास्तविक अवतार नही । किसी रूप स युक्त अथवा रहित पशग्रो तथा दवा का प्रतिमा पर्दे पर चित्रित कही गई पदार्थ को तब ही किसी व्यक्ति या किसी देव का प्रति- हे . अन्तगडदसामोसूत्र म उसख है कि सुलस ने हरिणनिधि माना जाता है जबकि हम इसे उसके गुणों से युक्त गमेसिन देव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की तथा वह नित्य