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१६८, वर्ष २४, कि०५
अनेकान्त
प्रति उसकी पूजा किया करता था। सम्भवतः जन धर्म शिखा होती है। तेजस की जैन धारणा इतनी पर्ण है कि में उपलब्ध सर्व प्राचीन प्रतिमा का समय कुषाण-काल है, यह मङ्गल-स्वप्न के विषय के रूप में निर्धम अग्निशिखा यद्यपि हमारे पास तीर्थडगे का निरूपण करने वाली को ही स्वीकार करती है। वह अग्नि-शिखा जिसे इस दिगम्बर मूर्तियों का एक जोड़ा है जो मौर्य युग से सम्बद्ध प्रकार एक मङ्गल स्वप्न का विषय बनाया जाता है उस किया गया है। तथापि, प्रतीकवाद अथवा पूजा-पदार्थों के व्यक्ति की अन्यात्मिका शक्ति का प्रतीकात्मक निरूपण प्रतीकात्मक निरूपणों अथवा कभी-कभी विशुद्धतया है जिसे स्वप्न की पूर्णता द्वारा प्राना है। यह जैनों के लोकिक महत्त्व से युक्त पदार्थ अथवा उन पदार्थों तक छह "लेस्सो" (लेश्यानों) अर्थात मनः शक्तियों के अन. के विषय में जिनकी पृष्ठभूमि मे केवल एक वैज्ञानिक कूल है। यह देख लेना मनोरञ्जक है कि छह भिन्न
निहित है. यह कहा जा सकता है कि जन कला भिन्न "लेस्सो" अथवा मनःशक्तियों में प्रत्येक का एक रूढियों मे उन्होने बहुत प्रारम्भिक काल से ही स्थान अपना विशिष्ट वर्ण है तथा अग्नि अर्थात "तेउलेस्स" ग्रहण कर लिया था।
(तेजोलेश्या) का सकेत उदीयमान सूर्य के विसवादी न कला-रूढियों मे अग्नि के प्रतीक को स्वर्ण के चमकने वाले वर्ण द्वारा किया जाता है। यह पारो बने। अग्नि-तत्त्व को सदैव जागृत अथवा मनः शक्ति अर्थात् अग्नि शक्ति धर्मपरक जैन परम्परा के प्रबोध से सम्बद्ध किया गया है। वेदो मे समग्र अग्न्यात्मक अनुसार प्रचण्ड तपस्यायो द्वारा प्राप्त होती है। फिर भी
न सोत सर्य समग्र चैतन्य एवं जीवन का इस शक्ति को कभी-कभी एक दूरी पर विनाशात्मक रूप सर्वोच्च प्रबोधक है। यह ज्ञान (प्रज्ञा) की ही लपट है मे प्रयोग किया जाता है। एक विशद जैविक होमको पराजित कर देती है। अमरावती से से यह कहा जा सकता है कि मानव-शरीर मे चार अन्य पE कतिपय प्रान्ध्र चित्रो मे बुद्ध का एक अग्नि-स्तम्भ रूपों के साथ-साथ इस अग्नि का रूप, अथवा अपेक्षाकत के रूप मे निरूपण केवल वैदिक विचारधारा का उज्जी
__ अधिक उचित रूप मे उष्णता (तेजस) रहती है। यहां जिसमे अग्नि की उत्पत्ति जलो से कहा गई इस धारणा में केवल व्यापारात्मक रूप ही ग्रहण किया पवा अधिक सीधे रूप में पृथ्वी से, क्योंकि यह एक जाता है। वह उष्णता जो जीवन की स्थिति को बनाए कमल पर प्राधत है। तेजस् अथवा अग्न्यात्मिका शक्ति रखती है उसी शाश्वत अग्नि, आदिम तथा शाश्वत मनः
ग्नि जैन धर्म में प्राचीनतम अङ्गा म स एक शक्ति का ही एक अङ्ग है। अङ्ग प्राचाराङ्ग सूत्र की जैसी प्राचीन परम्परा मे उप
बौद्ध धर्म तथा प्रास्टिक ब्राह्मण-धर्म में जीवन-वृक्ष यह कहा गया है कि जगत् के सम्पूर्ण ने जीवन तथा इसके सम्बन्धों से सम्बन्धित विचारो की
(जीव) एकेन्द्रिय जीव या तेउकाय, वायु- एक महत्त्वपूर्ण उपज्ञा के रूप में एक निश्चित स्थान ग्रहण काय तथा वनस्पतिकाय के लिए पाँच कायों में से किसी कर लिया है।
कर लिया है । कला मे इस धारणा के निरूपण के लिए न किसी से युक्त होते है। जैन तत्त्वविदो के काय-सिद्धान्त
प्रतीकात्मक रूपों का विचार निश्चय ही एक ऐसी बात के अनुसार एकेन्द्रिय जीव उपयुक्त पाँच प्रकार के भिन्न- है जिसे कला-रूपो के प्रतीकवाद के स्थान के मूल्यांकन में भित्र नियमित अस्तित्व ग्रहण करते है, तथा इनका कारण छोड़ा नही जा सकता, चाहे वे हिन्दू धर्म के हों, चाहे पर्वकृत कर्मों को कहा गया है। जब वह तेउकाय अथवा बौद्ध के या जैन के । साँची में जीवन के रत्न-वृक्ष के अग्नि-जीवन से युक्त हो जाता है तो उसे सामान्य अग्नि, शिखर तथा पादो के प्रतीकों में निरूपणो तथा अमरावती दीपक के प्रकाश, वाडवग्नि अथवा विद्युत् आदि में जाना में अग्नि-स्तम्भों के निरूपणों को बौद्ध धर्म के अपेक्षाकृत पड़ सकता है। जैन परम्परा के अनुमार अग्नि वाणी दूर-दूर तक विस्तृत त्रिशूल के प्रतीकवाद से सम्बद्ध किया (पाच) का अधिष्ठाता-देव है। चौदह अथवा सोलह जाता है। किन्तु हमे यह ध्यान रखना चाहिए कि त्रिशल मडल-स्वप्नो मे से एक वह है जिसका विषय अग्नि- का प्रतीक केवल जैनधर्म तथा बौद्ध धर्म मे ही उपलब्ध