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जैन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद
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नहीं होता अपितु इसके महत्त्व को एक इससे भी प्राचीन एक चक्र का चित्र है, श्रमणों का एक समुदाय जिसकी परम्परा मे खोजा जा सकता है। अग्नि वैश्वानर के तीन पूजा कर रहा है (?)। सचमुच इसका चक्र अथवा धर्मरूपों को त्रिशूल के दम तीन शलों में यूवन प्रतीक में चक्र के निरूपण की बौद्धकला के साथ निकट सम्बन्ध संस्थित कर दिया गया है। पश्चाद्वर्ती शैव धर्म में स्वय , जो प्राचीन ममाम्नाय मे स्वय भगवान् (बद्ध) के लिए शिव के साथ त्रिशल के सम्बन्ध के विषय में तो हम एक स्थानापन्न वस्तु थी। वास्तव में, ब्यूहलेर के शब्दों जानते ही है । इस पश्चाद्वती सम्बन्ध को एक बहुत में, "जैनो की प्राचीन कला बौद्धो की कला से तत्त्वतः प्राचीन परम्परा मे खोजा जा सकता है। धार्मिक कला के भिन्न न थी । वास्तव मे कला साम्प्रदायिक कभी न थी। प्राचीन स्थान मथ रा से प्राप्त कला-रूप इसके त्रुटि-विहीन दोनो सम्प्रदाय समान अल दुरणो, समान कला-उद्देश्यों साक्ष्य है। इससे भी पहले, मोहन-जो-दड़ो को प्रागैति- तथा समान पवित्र प्रतीकों का प्रयोग करते थे। भेद हासिक सस्कृति मे इस सम्बन्ध के प्रारम्भ को स्पष्टतः मुख्यत: केवल गौण बातो मे ही था। जैन धर्म में त्रिरत्न पहिचाना जा सकता है। कंदफिसेस द्वितीय के शैव सिक्के प्रतीक पूर्ण वस्तुप्रो के त्रिविध स्वरू। अर्थात् ज्ञान, श्रद्धा तथा मिरकैप से प्राप्त शैव मृद्रा (seal) शंव मम्प्रदाय के तथा प्राचार का अवन करता है। एक त्रिक का यह साथ त्रिशूल के इम सम्बन्ध के कुछ प्राचीनतम निरूपणो विचार जिसने बौद्ध धर्म में तीन रन अर्थात् बुद्ध धर्म में से है। जैन कला में त्रिशल एक दिग्पाल के प्राचीन तथा संघ का रूप धारण किया, कभी-भी विकोणीय प्रतीको मे एक है । धर्मपरक तथा धर्मनिरपेक्ष स्थापत्य से चित्र अथवा त्रिकोण स प्राङ्कत ।
चित्र अथवा त्रिकोण से अद्धित किया जाता था जो बोल सम्बन्धित पाठयों में यह विधान है कि किसी प्रासाद के के अनुसार "तथागत के देहनिष्ठ रूप" का बोध कराता निर्माण हेतु चुनी गई भूमि पर एक कर्मशिला की स्थापना ।
था, और कभी-कभी तीन वणों के अक्षर अ-उ-म् द्वारा । करनी चाहिए, जो किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा एक ।
ब्राह्मण-धर्म में '' विष्णु के लिए प्रयुक्त होता है, उ' धार्मिक प्रावश्यकता की बात अधिक है। जैनों के पश्चा- शिव के लिए और 'म्' ब्रह्मा के लिए। बौद्ध त्रिरत्न द्वी पाठ्यो में भी इस विधान का अनुसरण किया गया विविध प्ररूपो में तक्षशिला तथा प्राम-पास के बौद्ध स्थलों है। बत्थुसारपयरणम् इस परम्परा का अनुसरण करते से कुषाणों के प्राचीन काल से ही उपलब्ध होता है। हुए कूर्मशिला की स्थापना के सम्बन्ध मे इसी नियम का कङ्काली टीला, मथुरा से उपलब्ध उपरिसंकेतित विधान करता है । इसके आठ पाश्वों पर आठ दीपकों के स्थापत्य खण्ड का विचार हमे सर्वाधिक मङ्गतिपूर्वक धर्म प्रतीक रखे जाते है । अष्टम दिग्पाल के लिए वहां प्रयुक्त के प्रतीक के रूप मे चक्र के स्थान के मुल्याकन की ओर प्रतीक सोभागिनी प्रचार-पट्ट पर स्थापित त्रिशल है। अग्रसर करता है, जिमने प्राचीन तथा मध्यकालीन बौद्धयहाँ त्रिशूल तान्त्रिक स्वरूप के अष्टम दिग्पाल ईशान का धर्म में विशिष्ट लोकप्रियता ग्रहण की। बैष्णव प्रतिमाप्रतीक है। यह वास्तव में एक तथ्य को व्यक्त तथा शास्त्र के प्रतीक अथवा रूप के रूप में चक्र का प्रारम्भ स्पष्ट करता है, वह यह कि एक त्रिक का विचार, जो स्वयं भगवान विष्णु के साथ इसके गहन गम्पर्क में होता बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म के लिए त्रिरत्न की संरचना में है। लगभग ७वी शताब्दी ई०पू० के चक्र के चिह्न से सर्व पवित्र है और जिसका काल सम्भवत: कुषाण काल यूक्त प्राचीनतम आहत सिक्के इस परम्परा के प्राचीन के समान प्राचीन है, वह या जिसने जैनो की अप्रतिमा- स्वरूप के स्पष्ट प्रमाण है। त्रिरत्न प्रतीको से सम्बद्ध त्मिका धार्मिक प्रवृत्ति मे मूलभूत तत्त्वो मे से एक की चक्र विशिष्टता पूर्वक जैन नही है। यह कुषाण युग की रचना की। इस प्रसङ्ग मे मथुरा कङ्काली टोला स्थान तक्षशिला मे भी उपलब्ध होता है, जहाँ यह निःसन्देह से उपलब्ध वस्तु की पोर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता बौद्ध है । वहाँ इसे प्रतीकात्मक रूप मे त्रिशूल अथवा त्रिहै। एक जिनकी इस मूर्ति की पादपीठिका (Pedestal) रत्न प्रतीक के साथ सम्बद्ध करके अङ्कित किया गया है । के सामने की ओर उभार मे खुदे त्रिशूल के ऊपर स्थापित बुद्ध का हाथ धर्मचक्र का स्पर्श करता है । जो त्रि-रत्न