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२००, वष २४, का ५
अनेकान्त
प्रतीक पर स्थापित है, जिनके दो और एक-एक हरिण प्रतीको को धारण करने वाले मध्य चतुष्कोण के बगल में स्थित है, जो मृगदाव में दिये गये प्रथम उपदेश के प्रवचन स्थित है। इसी स्थान से प्राप्त एक अन्य प्रायागपट्ट में का चित्रण करता है। पश्चाद्वर्ती कालो मे सम्भवतः इस चक्र एक अलङ्करणो से घिरी हुई मध्यवर्ती वस्तु है (न. प्रकार के प्रतीको ने अपनी माम्प्रदायिक सीमायो को जे० २४८-गपुरा सग्रहालय)। यह तीन एक केन्दीय लाँघ लिया, क्योंकि जैन लेखक टक्कुर फेरु उल्लेख करता पट्टो से परिवृत्त सोलह आगे से युक्त एक षोडसार है कि चक्रेश्वरी का परिकर पादपीटिका पर मगो से धर्मचक्र है. जिसमें प्रथम पट्ट में सोलह नन्दीपाद प्रतीक युक्त धर्मचक्र दिख नारा बिना पूर्ण नहीं होता । चक्र-रत्न है। इस फलक को भली भोलि कुषाण काल में रखा जा की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है, जो जन मकना है। तदननर गुप्त-काल में राजगिर मे वैभाग्रोचक्रवर्ती के साथ उसके प्रतीक तथा प्राराध के रूप में गिर से हमें तीर्थ धर नेगिनाथ की अनुपम मूर्ति उपलब्ध सम्बद्ध किया जाता है । जैन कला मे चक्र के निरूपण को होती है, जिनमे पादपीका पर धर्मचक्र का प्रदर्शन स्पष्टीय युग के कुछ प्रथम शनको तक प्राचीन माना जा किया गया है तथा जिमकं बगल में एक शखो का जाड़ा सकता है। मथरा में कहाती टीले से खोदे गए, कृपाण- स्थित है। यह चक्र का मान करण किया गया है और युग से सम्बद्ध उन्नत फलकों, पायागपट्टों पर उस स्तम्भ चक्र । निरूपण म्बग चक्र साथ सम्बद्ध पुरुषविध के उच्च शिखर के रूप में चक्र की प्राकृतियां अङ्कित है रूप से युक्त चक्र-पुरुष के रूप में किया गया है। यह जो एक ध्यान की मुद्रा में स्थित जिन की प्रतिमा में मम्भवतः वैष्णव मूर्तियो, यथा गदादेवी तथा चक्र-पुरुष यूक्त सबसे अद के वृत्त का पर्श कर। वाले चार में प्रायध-पुरुषो के प्रदर्शन की ब्राह्मण-धर्मीय परम्परा का दिबिन्दुओं के ऊार चार त्रिरत्न चित्रण से युक्त चार प्रभाव है। किनारों पर फूल-पत्तियो के परिवेश में बने चार श्रीवत्स
संग्रह और दान कवि -जलबर ! तुझे रहने के लिए बहुत ऊचा स्थान मिला है । तू मारे संसार पर गर्जता है। सारा मानव-समाज चातक बनकर तेरी ओर निहार रहा है। तेरे समागम से मयूर की भांति जन-जन का मानस शाति उद्यान में नत्य करने लग जाता है । तू सबको प्रिय लगता है। तू जहाँ जाता है, वहीं तेरा सम्मान होता है। पर थोडा गौर से तो देख, तेरे पिता समुद्र की आज नयी स्थिति हो रही है। पिता होने के नाते उसे भी बहत ऊंचा सम्माननीय स्थान मिलना चाहिए था किन्तु उसे तो रसातल-सबसे निम्न स्थान मिला है। उसकी सम्पत्ति का तनिक भो उपयोग नहीं होता । मेघ ! इतना बड़ा अन्तर क्यों?
जलधर-कविवर ! इस रहस्य को गिरि कन्दरा में एक गहन तत्त्व छिपा हया है। वह हैसंग्रहशील न हाना। संग्रह करना बहत बड़ा पाप है। यही मानव को नीचे को प्रोर ढकेलने वाला है। संग्रह वृत्ति के कारण ही समुद्र को रहने के लिये निम्न स्थान मिला है। और उसका पानी भी पड़ापड़ा कड़वा हो गया है। समृद्र ने अपने जीवन में लेना ही सीखा है और देना अत्यन्त अल्प । मैं देने का ही व्यसनी हैं। सम्मान प्रार असम्मान का, उन्नति और अवनति का, निम्नता और उच्चता का यही मुख्य निमित्त है ।