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________________ जैन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद मूल लेखक : ए० के० भट्टाचार्य अनुवादक · डा० मानसिंह एम. ए. पी-एच डी. बौद्धधर्म तथा ब्राह्मण-धर्म की भाँति जैनधर्म मे कथनो के बल पर बद्ध द्वारा अपनायी गई समझी जाने किमी अप्रतिमात्मक प्रतीक को कदापि विशुद्ध जैविक तथा वाली मूर्ति विरोधी प्रवृत्ति पर भी केवल प्रारम्भिक बौद्ध उस परुष अथवा वस्तु को समता का कार्य नहीं करने कला मे प्रतिमात्मक निरूपण की स्वल्पता तथा परवर्ती दिया जाता जिसका कि वह प्रतीक है। मानव मस्तिष्क कालो मे इसकी बहुलता को न्याय्य रूप में प्रस्तुत करने ने परम देव के विषय में उसकी नितान्त समता के रूप में के लिए ही प्रयुक्त की गई है। तथापि दिव्यावदान में नहीं प्रत्युत बहुत प्राचीन काल से ही प्रतिमात्मक निरू. एक बौद्ध मूर्तिपूजक की स्थिति स्पष्टत: बतलाई गई है पणों के रूप में विचारना सीखा। तथापि इन अप्रतिमा- कि वह प्रतिमा के लिा नही प्रत्युत इसमें निहित सिद्धातों त्मक निरूपणो के ऐसे अर्थ एवं अभिव्यजनाएं थी जो के लिए मति-पूजा करता है। हिन्दुग्रो तथा बौद्धों की उन्हे विशुद्धतः अलङ्करणात्मक अथवा कलात्मक रूपो से भाति, मति-पूजा के सम्बन्ध म जैन लोगो की भी अपनी भिन्न करती थी। उनका प्रभाव नेत्र के भौतिक व्यापार विचारधारा है। उनके अनुसार मतियों की प्रतिष्ठा की अपेक्षा बुद्धि पर अधिक होता है । भारतीय धार्मिक, अधिकांशत: इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि वे वास्तअथवा अधिक उचित रूप में ईश्वरपरक विचागे में इस विक अवतारों, तीर्थरा तथा देवकुल के अन्य देवों का प्रतीकात्मक अाराधना का इतिहास ऐसा इतिहास है जो निरूपण करती है बल्कि प्राथमिकतया इसलिए कि उनमे स्वय धार्मिक परम्परा जितना प्राचीन है। "रूप-भेद" टिम गो दिव्य गुणो के सर्वाधिक सत्य तत्त्व के ध्यान की खोज की अर्थात प्रतिमाशास्त्र, जो पुरुषविध निरूपित प्रतिमाओ जा सकती है। इन भौतिक पदार्थो में दिव्य गुणो को का अध्ययन करता है, एक सर्वथा पाश्चात्कालिक विकास अभिव्यक्त रूप में खोजा जाता है, जिससे इन रूपो पर ध्यान करने से प्राराधको के मन मे दिव्य उपस्थिति के पुराकालिक बोद्ध साहित्य मे हम स्वय बुद्ध के मुख प्रभाव का अनुभव हो सके । उन दिव्य गुणो के माहात्म्य के माध्यम से निसत ऐसे कथन पाते है जिसमे पुरुपविध में प्रशमन से भिन्न जिनका कि वे निरूपण करती है इन प्रतिमायो के प्रति अनभिरुचि अभिव्यक्त की गई है। मूर्तियो को पूजा का कोई अर्थ नही है। इसी भावना का उसी प्रसङ्ग मे अनुमत चेतिय इस प्रकार का है कि जिसे अनुसरण करके हम किसी जलाशय अथवा निवास-भवन सुविधापूर्वक "सम्बद्ध" प्रतीको के वर्ग के अन्तर्गत रखा के अधिष्ठातृ देव की धारणा के सच्चे महत्त्व को समझ गया है। वे भगवान् (बुद्ध) के दृष्टिगत न होने की सकते है। इस प्रकार यही कारण है कि एक तीर्थङ्कर की स्थिति में उनके स्थानापन्न पदार्थो के रूप में प्रयुक्त करने प्रतिमा की कल्पना उस पदार्थ के रूप में की जाती है जो के लिए है। ये सम्बद्ध प्रतीक फिर भी बौद्ध कला में एक उन सभी गुणो के समुच्चय का निरूपण करता है अथवा विशेषता है, जिसके लिए जैनधर्म में हमारे पास कोई उन्हें अभिव्यक्त करता है जिनकी कल्पना हम अधिकतम ठीक सादश्य नही है। जनों द्वारा अपनी पाण्डुलिपियो स्वाभाविक रूप में एक धर्मदाता अथवा धर्म-निर्माता या तथा धामिक मर्तिकला में प्रयुक्त प्रतीकात्मक निरूपण कृपा करने-एक तीर्थडुर में कर सकते है, जिसके फल अधिक या कम कभी-कभी अकेले ही, कभी-कभी वर्गबद्ध स्वरूप यह उस व्यक्ति के प्रति प्रादर-भावना को प्रेरित रूप में पवित्र पूजा-पदार्थों के स्वरूप के है। उपर्युक्त करती है जिसका कि यह निरूपण करती है। यह कहा
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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