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१४०, वर्ष २४, कि०४
अनेकान्त
झुकाव अध्यात्म की ओर था । कवि ने लिखा है कि जीव सुगुरु वचन परतीति चित्त थे कवं न डोले । का जब तक अन्तर का दोष-राग-द्वेषादि का बुरा बोल सुवैन परमिष्ट सुनि इष्ट वैन मुनि सुख करें, संस्कार नहीं मिटता, तब तक राग कैसे छूट सकता है। कहै चन्द बसत जग फद में, ये स्वभाव सज्जन पर । राग भाव के न छूटने से कर्म बन्ध की परम्परा बढ़ती सज्जन गुनधर प्रोत रोत विपरीत निवार, रहती है । ऐसी स्थिति में मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती सकल जीव हितकार सार निजभाव सवार । है। जैसा कि निम्न दोहे से प्रकट होता है :
क्या, शील, संतोष, मोख सुख सब विधि जाने, राग भाव छुट्यो नहीं मिटोन अन्तर दोष ।
सहज सुधा रस सवै, तजे भाषा अभिमान, संसत बाढ़े बंध की होइ कहां सौ मोख ।।
जाने सुभेव परभेद सब जिन प्रभेद न्यागे लखै ।। जीवात्मा के सम्बन्ध में कवि की उक्ति निम्न प्रकार कहे चंद जह प्रानन्द प्रति जो शिव सुख पावै प्रख ।
गुण गुणी में रहता है, उससे भिन्न नहीं है विभा"सरवस व्यापी रस रहित रूप धरै छिन रूप ।
वता भिन्न है और स्वभाव प्रात्मा का स्वरूप है परन्तु एक अनेक सुथिर प्रथिर, उपमावन्त अनूप ।।
विभाव के कारण स्वरूप का लाभ नही हो पाता । मोह विमल रूप चेतन सदा, परमानन्द निधान ।
का अभाव होने पर स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। ताको अनुभव जो करें, सोई पुरुष पुमान ॥"
जीवादि छहों द्रव्य अनादि के शाश्वत है, जिनमे पान अमल प्रखंड अविनाशी निराकार जामे,
जड़ रूप है, और एक चेतन है, वही ज्ञायक है और शेष वृगबोध चारित प्रधान तीन धसुरे । द्रव्य ज्ञेय है, जैसा कि कवि के निम्न पद्य से प्रकट है :उज्जल उदोत सदा व्यापत न तमभावनहि,
गन सदा गुनी मांहि गुन-गुणी भिन्न, नाहि, न सकत जाहि ज्वाला कर्म वसुरे ।
भिन्न तो विभावता, स्वभाव सदा देखिये । ताहि पहिचानि तू है तो ही मै न और कहू, सोई है स्वरूप प्राप, पाप सो न है मिलाप, ताके पहिचानत ही होत है सुवसुरे।
मोह के अभाव में स्वभाव शुद्ध पेखिये ।। त्रिभुवनचन्द सुखकन्द पद चाहै जो तो
छहों द्रव्य सासते अनादि के ही भिन्न भिन्न, तजि जरा जग घूम धाम ऐसे धाम वसुरे।
अपने स्वभाव सदा ऐसी विधि लेखिये। इन सब पद्यों पर से कवि की प्रात्मभावना का सहज पांच जड़ रूप भूप चेतन सरूप एक, ही पता चल जाता है।
जान पनौं सारा माथे यो विसेखिये। कवि की एक रचना 'चन्द्रशतक' है, जिसे सो छन्द होने ज्ञानी किसी का गर्व नहीं करते, प्रत्युत अपने चिदाके कारण शतक कहा है। भाषा सानुप्रास और मधुर है, नन्दस्वरूप में तन्मय रहने का प्रयत्न करते हैं । द्रव्य गुण पर्याय आदि का कथन भी सुन्दर हुआ है। कवि की कविता कितनी सुन्दर और अध्यात्म रस से साहित्यिक दृष्टि से चन्द शतक के सर्वये कवित्त महत्वपूर्ण प्रोत-प्रोत है। कवि की अन्य क्या रचनाएं हैं यह कुछ ज्ञात है। उनमें प्राध्यात्मिकता की पृट अकित है, वे पारक को नहीं हो सका। कवि के समय के सम्बन्ध मे भी कोई अपनी ओर आकर्षित करते है। कवि ने सज्जन दुर्जन ऐसा प्रमाण उपलब्ध नही हुमा जिससे समय निर्धारित स्वभाव का जो वर्णन किया है वह कितना स्वाभाविक किया जा सके । फिर भी कवि का समय सम्भवतः १६वी बन पड़ा है। भाषा में सरसता, मधुर और कोमल कान्त शताब्दी हो सकता है । विद्वानों को इस पर विचार करना पदावली विद्यमान है।
चाहिए । इन कृतियों के अतिरिक्त कवि की अन्य कृतियों पर प्रौगुन परिहरे, धरै गुनवत गुण सोई, का पता ज्ञान भण्डारों में लगाना चाहिए । चित कोमल नित रहें, मूठ जाके नहि कोई।
विनाशीक धर्व को न गर्व ज्ञानवंत कर, सत्य वचन मुख कहें, पाप गुन माप न बोले,
एतौ पूरव कर्म उदेसों प्रान भये हैं।