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________________ हिन्दी के कुछ प्रज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएं १३६ चंतन्य स्वरूप ज्ञानानन्द मे स्थिर रहता है वह निरजन परिणामि जीव मुत्तं सपएसं एयखित्त किरिया य। पद प्राप्त किया। वाघिणी की दृष्टि शरीर का भक्षण णिच्चं कारण कत्ता सम्वगदमियरम्हि प्रपवेसो ।०५४५ करते हुए जब उस चिन्ह पर पडी, तब उसे देखकर जाति दुण्मिय एयं एवं पंचय तिय एय दुण्यिचउरोय । स्मरण हो गया। इधर सुकोशल के पिता मुनि कीर्तिधवल पंचय एर्य एय मूलम्स य उत्तरे जय ॥ ने भी समझाया, और बताया कि यह तेरा पुत्र था, जिसे परिणामी जिय मरती, परवेसी इक नित्य । नूने भक्षण किया है । जहाँ माना ही अपने पुत्र को खा क्षेत्री करता सर्व गति, किरियावत निमित्त ॥१॥ जाती है, उससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है ? पश्चात् अनु क्रम संख्या हूँ इक इक पन तीन चउ पन इक पंच। उमने बडा पश्चाताप किया, परिणाम स्वरूप उसके हृदय प्रतिपक्षी ज्यो कीजिये, उत्तर ग्यारह सच ।।२।। म विवेक जागृत हुमा मोर उसने भी प्रात्मा को पवित्र घउपन पन इक तीन हूँ, इक पन पन चउ एक । बनाने का प्रयत्न किया। यह विचार सोई लहै जा घट विमल विवेक ॥३॥ त्रिभुवनचन्द्र ने अपना कोई परिचय गुरुपरम्परा परिणामी द्वे जानिये, चेतन पुद्गल दर्व। और समय का कोई उल्लेख नही किया। कवि ने कही धर्म-अधर्म प्रकास जम अपरिणामि ए सर्व ॥४॥ 'चन्द्र' और 'त्रिजग वन्द्र' तथा 'विभवन चन्द्र' नाम दिया जीव एक चेतन दरब, वाकी पच जीव । है। राजस्थान के भण्डारों में अापको कई रचनाए उप- रूपी पुदगल एकलौ, शेष रूप सदीव ॥५॥ लब्ध होती है, उनसे आपकी हिन्दी साहित्य-सेवा की पुदगल धर्म अधर्म नभ, चेतन परम रसाल । लगनका पता चलता है। आपकी रचना सुन्दर, सरस परवेसी ये पंच है, अपरदेस है काल ॥६॥ और प्रवाहयुक्त है । अनित्य पचाशन, फुटकर दाहे कवित्त धर्म अधर्म प्रकास ये, तीनों कहिये एक । आदि और पटद्रव्य वर्णन प्रादि है। कविता सरस और चेतन पुदगल काल ये तीनों बरच अनेक ।।७।। भावपूर्ण है। इसमें अनित्य पचाशत प्राचार्य पद्मनन्दि की धर्म अधर्म कृनात नभ, चारों नित्य बखानि । मस्कृत रचना है उसका हिन्दी पद्यानुवाद कवि ने प्रस्तुत जिय प्रग न परि जायकर हूँ अनित्य ये जानि ।।८।। किया है । जिसका आदि अन्त भाग निम्न प्रकार ह .- पुद्गल धर्म अधर्म जम, चेतन क्षेत्री पंच। शद्ध स्वरूप अनूप में मूरति जसु गिरा करुनामय सोहे, एक क्षेत्री गगनसौ पर थिात बसं न रंच ।।६।। सजमवत महा मान जोध जिन्हो घट धीरज चाप धरो है। जीव एक करता दरब, दुविध चेतना धाम । मारन को रिपुमोह तिन्हे वह तीक्षन साइक पति हो है, पुद्गल धर्म अधर्म नभ, काल प्रकरता नाम ॥१०॥ सो भगवत सदा जयवंत नमो जग में परमातम जो है ।१। व्यापी लोकलोक मै, व्योम सर्वगत सोइ । अन्तिम भाग : वाकी पच असवंगत, रहे पूरी तब लोइ ।।११।। पवमनन्दि मुनिराज तामु प्रानन जलधारी, चेतन अरु पुद्गन दरब, क्रियावंत ए दोय । तातहिं भई प्रति सकल जन मन सुखकारी। वाकी चारों ज रहे, तिन्ह के क्रिया न होय ॥१२॥ धनवनिता पुत्रादि सोक दावानल हारी, अंतक धर्म अधर्म नभ, पुदगल पच निमित्त । भय दलनी सदबोध प्रत उपजावन हारी ।। चेतन एक प्रकारिणी, सब गति परम पवित्त ।।१३।। उन्नत मतिषारी नरनिकों अमृत वृष्टि संराय हरनि । छहो दरब निरने यहै, नाम मात्र समुदाय । जय यह अनित्य पंचासिका त्रिजगचद मगल करनि ॥१॥ ग्यारह भेद विचारिक, बीने प्रगट बनाइ ।।१४।। दोहा-मूल संकृत प्रयतै भाषा त्रिभुवनचद, उपादेय चेतन सदा, उज्जल त्रिभवनचन्द । कोनी कारन पायके पढ़त बढ़त प्रानन्द ।। जाको ध्यावत भावते, लहिये परमानन्द ।।१५।। दूसरी रचना षद्रव्य निर्णय है जो निम्न प्राकृत कवि की फुटकर रचनामो मे दोहे कवित्त सवैया गाथाम्रो का अनुवाद १५ दोहो मे किया गया है। प्रादि मिलते हैं, उनसे यह ज्ञात होता है कि कवि का
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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