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७६, वर्ष २४,कि०२
भनेकान्त
तीसरे वर्ष वह कही नही गया परन्तु राजधानी में बहुत कर मथुरा को भाग गया। खारवेल भी मथुरा पहुंचा, उत्सव एव मनोरंजन के भनेक कार्य किये ।
इससे पता चलता है कि खारवेल कितना पराक्रमी और ३-चतुर्थ वर्ष के प्रारम्भ मे ही खारवेल ने अपने प्रतापी था, उसका देशप्रेम और भुजविक्रम निस्सन्देह सैन्य सहित विन्ध्याचल की भोर प्रस्थान किया। उससे अद्वितीय था। खारवेल ने मथुरा में ब्राह्मकों को दान भी वह क्षुभित हो उठा । अरकडपुर मे विद्याघरों के प्रावास दिया था। और राजधानी को लौट पाया। को, जो कलिंग के पूर्व राजामों ने बनवाये थे। उनका ७-नौवें वर्ष में खारवेल ने 'कल्पद्रुम' नामक महाजीर्णोद्धार कराया। खारवेल ने रथिकों के भोजको को पूजा की और लोगों को किमिच्छिक दान दिया तथा परास्त कर अपने प्राचीन किया । वे छत्र भ गार छोड़कर घोड़े, रथ, हाथी प्रादि योद्धानों को भी भेट किये । खारवेल के चरणों मे झुकने को बाध्य हए । रथिकों के ब्राह्मणों को भी दान दिया। यह पूजा चक्रवर्ती सम्राट भोजक-अर्थात् महाराष्ट्र के भोजपदवी वाले सरदार ही कर सकता है। खारवेल ने प्राची नदी के दोनों तटों जिनका प्राचीन लिच्छवियों और शाक्यों आदि की तरह पर महाविजय नाम का प्रासाद बनवाकर अपनी दिग्विजय गणराज्य था, इसी कारण शायद प्रत्येक सरदार छत्र को चिरस्थायी बना दिया। इसके निर्माण में अड़तीस धारण करता था।
लाख रुपया व्यय हुआ। ४-पचम वर्ष में खारवेल अपनी राजधानी की दसवे वर्ष में सेना को उत्तर भारत की ओर भेजा। शोभा एवं सज्जा बढ़ाने के लिए तनसुलिवाट नहर को --ग्यारहवे वर्ष मे प्राव राजा द्वारा बसाई हुई बढ़ाकर राजधानी तक लाया, जिसे नन्द राजा ने तीन पिड या पिहुंड मण्डी (बाजार) को गधो के हल से सौ वर्ष पूर्व बनवाया था।
जुतवा डाला और ११३ वर्ष पुराने तिमिरदेष (तामिल५-छठवें वर्ष में खारवेल का राजसय अभिषेक देष) संघात को तोड़ डाला। इसी वर्ष खारवेल के प्रताप हुमा । तब उसने पौर और जानपद सघो को विशेष अधि- की प्रान मानकर दक्षिण के पाण्ड य नरेश ने खारवेल कार दिये । यद्यपि खारवेल सम्पूर्ण स्वत्वाधिकारी सम्राट का सत्कार किया और रत्नादि मूल्यवान वस्तुएँ भेट था, फिर भी उसने प्रजा की भलाई के लिए अनुग्रह किया स्वरूप उनकी सेवा में प्रेषित की। -डा० जायसवाल जी के अनुसार उसने कानूनी वे सब ह-बारहवे वर्ष खारवेल ने मगध पर पुनः प्राक्ररियायतें जो पौर और जनपदों को दी जाती थी, प्रजा मण किया, जिससे मगध में प्रातक छा गया। यह प्राक्रहित को दृष्टि से प्रदान की।
मण अशोक के कलिंग अाक्रमण के प्रतिशोध रूप में था। सातवें वर्ष में खारवेल अपनी आयु के ३१ वर्ष पूर्ण मगध नरेश वृहस्पति मित्र (पुष्प मित्र) खारवेल के कर चुका था।
पैरों मे नतमस्तक हुए। उन्होने अंग और मगध की मूल्य६-पाठवे वर्ष में खारवेल ने बड़ी सेना के साथ वान भेट के साथ कलिग के राज चिन्ह और कलिंग मगध पर प्राक्रमण किया और ससैन्य गोरथगिरि' तक
३. किमिच्छकेन दानेन जगदाशः प्रपूर्ययः । पहुँच गया, और उसे विजित कर, सेना ने राजगिर को
चक्रिभिः क्रियते सोऽर्ह यज्ञः कल्पदुमो मतः । घेर लिया। राजगिर के घेरे की बात सुनकर यवन राज
-सागारधर्मामृत २.२८ देमिश्रियस (Demetruis) इतना भयभीत हुआ, कि दिमित
४. कलिंग तट के साथ-साथ दक्खिन को मोर बढ़ने पर या दिमेत्र घबड़ाई सेना और वाहनों को मुश्किल से बचा
प्राव नाम का एक छोटा-सा राष्ट्र था, जिसकी राज१. भारतीय इतिहास की रूप-रेखा पृ०७१७ ।
घानी पियुंड या पिहुंड थी। दूसरी शताब्दी ई. के २. गोरथगिरि गया की सुप्रसिद्ध वाराबर पहाड़ी है, यह रोमन भूगोल लेखकने लिखा है कि उक्त नगरी तमिल
उसके एक अभिलेख से सिद्ध हुपा है, भारतीय इति- देश का द्वार मानी जाती थी। हास की रूप-रेखा पृ०७२० ।
-भारतीय इतिहास की रूप-रेखा, पृ.७२३ ।