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कलिंग का इतिहास और सम्राट् खारवेल : एक अध्ययन
जिनकी प्राचीन मूर्ति, जिसे राजा नन्दि वर्द्धन मगध ले कुमारगिरि कहलाता था। कुमारगिरि प्रसिद्ध तीर्थ स्थान गया था प्रदान की। खारवेल उस सातिशय प्रादि जिन है-निर्वाण भूमि है। जिसे उदयगिरि भी कहा जाता है। की मूर्ति को वापिस लेकर कलिंग पा गया और उसे भगवान महावीर ने कुमारगिरि पर उपदेश दिया था। महोत्सव के साथ विराजमान किया ।
कलिंग के राजा जितशत्रु ने इसी पर्वत पर दीक्षा ली थी। १०-तेरहवे वर्ष मे खारवेल ने अहत निषीदी के और तपश्चरण द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त किया और प्रमासमीप पर्वत पर श्रेष्ठ प्रस्तर खानो से निकाले हुए और तिया कर्म का नाशकर मुक्ति पद प्राप्त किया। यह अनेक योजनों से लाये गए पाषाणोसे सिंह प्रस्थ वाली रानी प्राचीन गाथानों से स्पष्ट है :सिंधुला के लिए निश्रय बनवाए।...' खारवेल ने जिवसत्तूरायाणं जितारिपुत्तं कलिंग वासम्मि । बंड्यंगठित चार स्तम्भ भी स्थापित किये, इसके निर्माण बेहादि णि विष्णो कुमारगिरिम्हि पम्वइया । में पचहत्तर लाख रुपये व्यय हुए। सम्राट् खारवेल दिग्वि- किच्चा तब स घोरं माणग्गिणा बुड्ढघाइ-कम्ममलं । जय से सन्तुष्ट होकर राज्य लिप्सा से विरक्त हो धर्म
पप्पा केवलणाण प्रणतरं णिय्याणसुह लहा। साधन की ओर अग्रसर हुए। उन्होने कुमारगिरि पर्वत
(प्राचीन गुट के से उद्धत) पर जहां भगवान महावीर ने धर्मोपदेश दिया था । श्रावक कलिंग के धर्मपुर नगर मे भगवान महावीर के द्वितीय के व्रतों का अनुष्ठान करते हुए जीवन को प्रात्म-साधना
गणघर सुधर्म स्वामी अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भाए में लगाया। उसके बाद वह कब तक जीवित रहा, यह
थे। इनके उपदेश से वहां के राजा यम ने गर्दभ पुत्र को कुछ ज्ञात नहीं हो सका, खारवेल कम से कम १०-१५ वर्ष
राज देकर अपने पांच सौ पुत्रों के साथ जिन दीक्षा ग्रहण तो अवश्य ही जीवित रहा होगा।
कर ली। तथा तपश्चरण द्वारा बीजादि अनेक ऋद्धियाँ उदयगिरि और खण्डगिरि
प्राप्त की। और अन्त मे उन्होंने कुमारगिरि से स्वर्ग भुवनेश्वर से ५ मील शिशुपालगढ के उत्तर पश्चिम प्राप्त किया था'। सम्राट् खारवेल ने इसी पर्वत पर जैन मे उदयगिरि खंडगिरि नाम के दो छोटे-छोटे पहाड है। श्रमणों के लिए अनेक गुफामो का निर्माण किया था। उनकी ऊंचाई क्रमशः ११० फीट और १२३ फीट है। और विशाल मन्दिर बनवाया था और उसमें प्रादि जिन इन पहाड़ियों पर जैन श्रमणों के तपश्चरण करने के लिए की उस सातिशय मूति को, जिसे कलिंग विजय के समय अनेक गुफाए बनी हुई हैं। जिनकी संख्या १०० के लग- १. अन्यदा विहरन क्वापि शिष्य पञ्चशतावृतः । भग है । इनमें दो बड़ी गुफाएं है जो भगवान महावीर के
धर्माख्यपरसामीप्यं सुधर्मा मुनिराययो । समय से ही प्रहन्तो के ससर्ग से पावन हो चुकी थीं। इनमे सबसे महत्वपूर्ण हाथी गृफा है जिसमे चेदिवश के
पाहूय गर्दभाभिख्यं पुत्र प्राप्त स भूपतिः । राजा खारबेल का लेख अंकित है। उस काल में यहाँ
राजपट्ट बवन्धास्य समस्तनृपसाक्षिकम् ।।१५ हजारों की संख्या में श्रमण तपश्चरण करते थे। भगवान
शतैः पञ्चिभिरायुक्तः स्वपुत्राणा नृपं सह । महावीर के समय कुमारी पर्वत पर चतुर्विध सघ अनेक
अन्यः सुधर्मसामीप्ये राजेन्द्रः स तपोऽगृहीत ॥१६ बार पाया था। हजारों साधु यहाँ रहकर प्रात्म-साधना
xxx द्वारा प्रात्मसिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। सुधर्म
एताभिलब्धिनियुक्ता श्रामण्यं परिपाल्य च । स्वामी भी अपने ५०० शिष्यों के साथ कुमारगिरि पर
धर्मादिनगरासन्नो कुमारादिगिरि मस्तके ॥६७ भोर धर्मपुर मादि मे विहार करते हए आये थे। उदय
शतैः पञ्चभिरायुक्तो मुनीनां धर्मशालिनां । गिरि का प्राचीन नाम कुमारगिरि था जिसके सम्बन्ध मे
माराधना समाराध्य यमः साधु दिवे ययौ ॥६८ कुछ विचार किया जाता है। हाथी गुफा की प्रशस्ति में
-हरिषेण कथाकोष पृ० १३४ भी कुमारगिरि का उल्लेख है । उस समय समूचा पर्वत तथा भगवती माराधना गाथा ७७२
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