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कलचुरि कालीन एक नवीन जैन भव्य शिल्प
कस्तूरचन्द 'सुमन' एम. ए.
जबलपुर दि. ८ जुलाई ७१ नवभारत दैनिकपत्र में रहा है । सम्प्रति उपलब्ध मूर्ति सम्भवतः उसी मन्दिर में लखनादौन (सिवनी) म. प्र. मौर्यकालीन एक प्राचीन प्रतिष्ठित रही है। इस उपलब्धि से स्व. रायबहादुर जन प्रतिमा उपलब्ध होने के समाचारों के साथ शिल्प द्वारा प्रकट की गयी संभावना कि यह लेख जैनों का है, का चित्र भी प्रकाशित कराया गया है। यह जन शिल्प, न केवल पुष्ट होती है बल्कि उक्त संभावना को सत्य लखनादौन के मूला काछी परिवार के शारदाप्रसाद हर- निरूपित करती है । इस भांति इस भव्य शिल्प को १०वीं दिया के बगीचे में जमीन के मात्र दो फुट नीचे से दि० शती के प्रासपास का तिथ्यांकित किया जाना उपयुक्त ७-७-७१ को उपलब्ध हुआ है। प्रतिमा का अंकन ४ फुट प्रतीत होता है । ऊंचे और सवा दो फुट चौड़े शिलाखण्ड पर हुआ बताया
र सवा दा फुट चाड़ शिलाखण्ड पर हुआ बताया शिल्प मौर्य कालीन नहीं, कलचुरि कालीन है : अन्य गया है।
स्थानों में प्राप्त मौर्यकालीन कलाकृतियों से यह पूर्ण प्राचीन जैन केन्द्र : जिस स्थल विशेष से यह भव्य । समानता रखती है, यह तर्क देते हुए डा० सुरेशचन्द जैन शिल्प उपलब्ध हुमा है, उसके २/३ फरलांग के समीपवर्ती प्रादि ने इस शिल्प को मौर्यकालीन बताया है किन्तु क्षेत्र में अन्य खण्डित मूर्तियाँ और कलाकृतियाँ उपलब्ध 'रत्नेश' जी लामटा द्वारा डा० सुरेश जैन से प्राप्त शिल्प होती रही हैं. तथा प्राज भी यदा कदा उपलब्ध होती है। चित्र को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि इस कृति का इन उपलब्धियों से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल बहत कुछ वैसा ही अंकन हुअा है, जैसा कि अंकन कलमें यह शहर प्राचीन भारतीय संस्कृत का केन्द्र रहा है। चुरि कालीन हनुमान ताल जबलपुर के जैन बड़े मन्दिर इस उपलब्धि ने यह भी प्रभावित कर दिया है कि मे स्थित प्रतिमा में दिखाई देता है। जबलपुर से १०-११वी शती के निकट यह शहर जैन संस्कृति का भी प्राप्त एक ऐसा ही जैन शिल्प नागपुर संग्रहालय में भी प्रमुख केन्द्र रहा है।
विद्यमान है। इससे स्पष्ट है कि 'उपलब्ध प्रतिमा' कलसमय : स्व० रायबहादुर हीरालाल ने अपनी पुस्तक चुरिकालीन है, मौर्यकालीन नही । "इन्स्क्रिपशन्स इन सी० पी० एण्ड बरार" के पृ० ६६ मे
परिकर : अब तक महावीर नाम से प्रसिद्ध कलचुरि लखनादौन से ही उपलब्ध एक द्वार शिलाखण्ड पर अकित
कालीन दो प्रतिमाए ही भव्यता में ज्ञात थीं। इसमे एक अभिलेख की उपलब्धि निर्देशित की है। उन्होंने प्राप्त
नागपुर संग्रहालय में विद्यमान है जिसे १०वीं शती का भभिलेख के जैन मन्दिर का होने की संभावना प्रकट
बताया गया है (देखिए-नागपुर संग्रहालय स्मरणिका, करते हुए लिखा है कि लेख में मन्दिर निर्माता को अमृत सेन का प्रशिष्य और त्रिविक्रमसेन का शिष्य बताया गया
१६६४ ई०, पृ० ३६ पर प्रकित चित्र)। है। निर्माता का नाम अदृश्य है। लेखक ने लेख की लिपि द्वितीय मूर्ति हनुमान ताल जैन मन्दिर में विराजमान के प्राधार पर लेख को १०वीं शताब्दी के होने की है जिसे मैंने अनेकान्त (वर्ष २४ कि० १ वीर सेवा संभावना भी व्यक्त की है।
मन्दिर २१ दरियागंज देहली ६) में प्रकाशित अपने लेख इस उल्लेख से ऐसा ज्ञात होता है कि इस शहर मे में अलेकरण के रूप में अंकित प्रासन में तीन कमला१०वीं शती के प्रासपास अवश्य ही कोई जैन मंदिर निर्मित कृतियों को देखकर पद्मप्रभ कहा है जबकि जैन नवयुवक