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शोष कण
विपुरी से प्राप्त प्रनेक सुन्दर जैन प्रतिमाएं थी। मभी दो वास्तव में यह मनोहारिणी मूर्ति, युगादिदेव भगवान् वर्ष पूर्व तेवर ग्राम के पास खेत जोतते समय कलचुरी मादिनाथ की प्रतिमा है। मूर्ति के कांधे पर लहराती कालीन सात पाठ सुन्दर मूर्तियां प्राप्त हुई थी जो बाद जटाएं इस बात का ज्वलंत प्रमाण है । भगवान् प्रादिनाथ में जबलपुर ले आ गई थीं। इनमे भी जैन मूर्तिकला का के दीर्घकालीन, दुद्धर तपश्चरण के कारण उनकी प्रतिमा उत्कृष्ट प्रतिनिधित्व था। तेवर ग्राम की वापिका पर, में जटाएं बनाने की परम्परा मध्यकाल तक प्रचलित रही तालाब के मन्दिर की बाह्य भित्ति पर, ग्राम के मन्दिरों है। जटामों के प्रकन के इस रहस्य का उल्लेख आदि में तथा एक दो लोगों के घर पर कुल मिलाकर लगभग पुराण में इस प्रकार वणित हैपाठ दस जैन तीर्थकर मूतियों तथा इतनी ही जैन शासन चिरं तपस्यतो यस्य जटा मूनि बभुस्त राम् । देवता प्रतिमाए दो वर्ष पूर्व तक पड़ी थीं। तीन शासन ध्यानाग्निदग्ध कर्मेन्धनिर्यदधुमशिखा इव ॥ देवता मूर्तियों का चित्र भी सागर-विश्वविद्यालय की
-(प्रादि पुराण पर्व १, श्लोक ६) पत्रिका में मैंने प्रकाशित कराया था।
दूसरी बात जो इस मूर्ति के सम्बन्ध मे मेरी समझ में (२) जबलपुर मे हनुमान ताल के बड़े जैन मन्दिर प्राती है वह है इसकी स्वरूप भिन्नता । सम्भवतः प्राज में प्रतिष्ठित जिस प्रतिमा का लेख में वर्णन है, वह सच- से सौ डेढ़ सौ वर्ष पूर्व यह मति प्रातः खण्डित अवस्था मुच ही कलचुरी कालीन जैन मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदा
मे तेवर अथवा उसके पास पास के किसी स्थान से उठा हरण है । इतनी सुन्दर और सज्जा पूर्ण तीर्थकर प्रतिमाएं कर लाई गई होगी। मूर्ति को पुनः स्थापित करते समय बहुत हा कम उपलब्ध हुई हैं। सच तो यह है कि इस किसी स्थानीय कारीगर ने उसकी खण्डित प्राकृति को प्रतिमा के परिकर को सज्जा और वैभव का सही संवारने की कोशिश की है। मुख की प्राकृति, अांखें, अंदाजा, विना मूर्ति का दर्शन किये लग ही हाथो की अंगुलियां तथा पैर ध्यान से देखने पर, यह नहीं सकता। मैंने इस प्रतिमा का एक चित्र गत वर्ष बात स्पष्ट हो जाती है। लिया था जो इस नोट के साथ प्रकाशित हो रहा है। जिस कला कुशलता से मूर्ति का परिकर, विद्याधर कलचुरी कलाकारों की अद्भुत तक्षण प्रतिमा की एक तथा इन्द्र प्रकित किए गए है, मूल प्रतिमा के प्राकार झांकी इस चित्र से पाठकों को मिल जायगी।
तथा अनुपात मे उस दक्षता की छाह नही है। ध्यान से लेख के विद्वान लेखक ने इस प्रतिमा को तीर्थकर
देखने पर भासित होता है कि शीर्ष भाग को छोडकर पद्म प्रभु की प्रतिमा लिखा है। मैं उनकी इस घारणा से ।
प्रतिमा का पूरा प्राकार एक प्रगुल नीचा उतार कर पुनः सहमत नहीं हूँ।
तराशा गया है। कुछ भी हो, यह बात निविवाद है कि पीठिका पर प्रकित कमल इस प्रतिमा का चिह्न नहीं
कलचुरी कालीन देव प्रतिमानो मे इतनी ऐश्वर्य शाली है, वह तो सज्जा का एक प्रश और अर्चना का प्रतीक
और वैभवपूर्ण प्रतिमाए बहुत कम मिली है। मात्र है। कुण्डलपुर के बड़े बाबा की मूर्ति में तथा खजु- इसी मन्दिर मे रखी हई जिस पद्मावती प्रतिमा का राहो, देवगढ़ आदि को अनेक प्रतिमामों में कमल का लेख में उल्लेख किया गया है वह प्रतिमा नवीन है और ऐसा ही मकन भिन्न-भिन्न तीथंकरों की पीठिका पर उसे लेखक के प्रमाद वश ही कलचरी कालीन प्रतिमानी पाया जाता है।
के साथ जोड़ लिया गया ज्ञात होता है ।
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