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विशालकीर्ति व अजितकीर्ति
विद्यावर जोहरापुरकर
मराठी में विशालकीति द्वारा रचित धर्मपरीक्षा उपलब्ध है । लेखक ने अपने गुरु का नाम देवेन्द्रकीति बताया है किन्तु रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया। रचना मराठी में होने से लेखक के गुरु कारंजा के भट्टारक होगे ऐसा अनुमान स्वाभाविक था किन्तु कारंजा में देवेन्द्रकीर्ति नाम के छः भट्टारक हुए है अतः कौन से देवेन्द्र कीर्ति लेखक के गुरु थे यह स्पष्ट नहीं हो सका । रचना की हस्तलिखित प्रति शक १६१० की प्राप्त है। इसके पूर्व भी कारंजा में दो देवेन्द्रकीर्ति हुए थे अतः यह बात पनि श्चित रही थी डा० सुभाषचन्द्र धक्कोके के प्रवन्ध 'प्राचीन मराठी जैन साहित्य' (सुविचार प्रकाशन मंडल, पूजा द्वारा १९६८ मे प्रकाशित) ।
महाराष्ट्र मे माग्देह नगर के निकट पूर्णा नदी के तोर पर उपलद ग्राम है। यहाँ के जिनमन्दिर की मूर्तियो के लेखों का सारांश एन्युअल रिपोर्ट आफ इन्डियन एपि ग्राफी (भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग द्वारा संकलित) के वर्ष १९५८-५९ के प्रकाशन में दिया है। इनमें से क० बी २१६२६६ तथा २७० से उपर्युक्त प्रश्न सुलझने में मदद मिली है। यह सारांश हमने जैन शिलालेख संग्रह भाग ५ ( जो भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा अभीअभी प्रकाशित हुआ है ) मे लेख क्र० २६० से २६२ के रूप मे सकलित किया है। तीनों लेखों की तिथि शक १५४१ अर्थात सन १६२० दी गयी है। प्रथम लेस मे प्रतिष्ठापक प्राचार्य का नाम विशालकीति श्रकित है, दूसरे लेख मे उन्ही का नाम मूमसंघ सरस्वतीगच्छ बला स्कारगण इस सप्रदाय नाम के साथ है तथा तीसरे लेख में देवेन्द्रकीति के शिष्य विशालकीर्ति ऐसा उनका उल्लेख है । प्रर्थात धर्मपरीक्षा की उपलब्ध प्रति के लगभग ७० वर्ष पूर्व ये विशालकीर्ति हुए थे। उनकी इस निश्चित तिथि के मालूम हो जाने से घब यह कहा जा सकता है कि वे कारंजा के देवेन्द्रकीति नामक द्वितीय भट्टारक के शिष्य होंगे जिनकी ज्ञात तिथियाँ शक १५०३ से १५१४ तक हैं (भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराज पंथमाला सोलापुर १९५० पृष्ठ ५०-५१ ) इन देवेन्द्रकीति के पट्टशिष्य कुमुदचन्द्र की ज्ञात तिथियाँ शक १५२२ से १५३५ क है अतः कुमुदचन्द्र के गुरुबन्धु के रूप मे विशासकीति
का शक १५४१ में उल्लेख सुसंगत ही होगा । कुमुदचन्द्र के शिष्य वीरदास का मराठी सुदर्शन चरित्र उपलब्ध है।
मराठी मे अभयकीर्ति द्वारा शक १५३८ में रचित अनन्तव्रतकथा का हमने सपादन किया था ( सम्मति मासिक, बाहुबली कोल्हापुर, मई ५८ ) । इनके गुरु का नाम अजितकीर्ति बताया गया है। इस नाम के कुछ भट्टारक लातूर की परम्परा में हुए है किन्तु उनका समय शक १५३८ से काफी बाद का है अतः प्रभयकीर्ति किस स्थान की परम्परा से सम्बद्ध थे यह स्पष्ट नहीं हो पाया था । उखलद के ही शिलालेखो के उपर्युक्त सारांश मे क० बी २६६-७ पर प्राप्त विवरण से यह प्रश्न भी सुलझ सकता है। यह जैन शिलालेख संग्रह भाग ५ मे लेस ० २४२-३ रूप मे संकलित है। इनमें से दूसरे लेख में तिथि नही है किन्तु धर्मचन्द्र-धर्म भूषण- देवेन्द्रकीर्तिप्रजितकोति यह परम्परा दी गई है । कारजा के भट्टारकों की परम्परा से मिलान करने से स्पष्ट होता है कि इसमे उल्लिखित धर्मभूषण के शिष्य देवेन्द्रकोति उपयुक्त द्वितीय देवेन्द्रकीति ही हैं जिनकी ज्ञात तिथियाँ शक १५०३ से १५१४ तक है । इनके शिष्य मजितकीर्ति थे प्रतः वे शक १५३८ के प्रनन्तव्रतकथारचयिता श्रभयकीर्ति के गुरु होना सुसंगत है। इन दो लेखों में पहला लेख शक १५०६ का बताया गया है। इसमें धर्मभूषण के शिष्य देवेन्द्र कीर्ति के किसी शिष्य का नाम उल्लिखित है किन्तु यह पूरा हैइसका उत्तराचं कीति है, पूर्वाचं पढ़ा नहीं गया है। उपर्युक्त पर्चा से निष्पन्न गुरुशिष्यपरम्परा इस प्रकार दिखाई जा सकेगी
धर्म भूषण
देवेन्द्रकोशिक १५०३ से १४
कुमुदचन्द्र शक १५२२ से ३५
विद्यालक कीर्ति शक १५४१ (धर्मपरीक्षाकर्ता)
अजितकीर्ति
I श्रभयकीर्ति शक १५३८ (अनन्यतयाकर्ता)