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________________ श्रावक की ५३ क्रियाएँ बंशीघर शास्त्री एम. ए. पुराण साहित्य में श्री जिनसेनाचार्य कृत मादिपुराण मोद, ६. प्रियोद्भव, ७.नामकर्म, ८. बहिर्यानि, ६. निषधा, का महत्त्व सर्वविदित है। इसके उत्तरवर्ती साहित्यकारों १०. प्राशन, ११. व्युष्टि, १२. केशवाप, १३. लिपितथा प्राचार्यों ने इसके विषय, परम्परा, शैली आदि का अनु- संख्या व संग्रह, १४. उपनीति, १५. व्रतचर्या, १६. व्रताकरण किया है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डा० वतरण, १७. बिवाह, १५. वर्ण लाभ, १६. कुलचर्या, २०. एस. भट्टाचार्य ने इसे भारत एव भारतीय जीवन का गृहीशिता, २१. प्रशान्ति, २२. गृह त्याग, २३. दीक्षाद्य, विश्वकोष बताया है। २४. जिनरूपता, २५. मोनाध्ययन वृत्तान्त, २६. तीर्थकृत इसमें प्रादिनाथ भगवान का सपरिवार पूर्ण चरित्र भावना, २७. गुरुस्थानाभ्युपगम, २८. गणोपग्रहण स्वगुण प्रस्तुत किया गया है। उनके पुत्र भरत का पूर्ण विवरण स्थान संक्रांति, ३०. निःसंगत्वात्मभावना, ३१. योग दिया गया है। भरत ने किस प्रकार चक्रवर्ती पद प्राप्त निर्वाण संप्राप्ति, ३२. योग-निर्वाण साचन, ३३. इद्रोपकिया, उन्होंने दान देने योग्य पात्र ढूंढने हेतु किस प्रकार पाद, ३४. अभिषेक, ३५. विधिदान, ३६. सुखोदय, ३७. परीक्षण किया, उन्हें उनके कर्तव्यो का किस प्रकार भान इन्द्र त्याग, ३८. अवतार, ३६. हिरण्योत्कृष्ट जन्मता, कराया प्रादि का विस्तृत वर्णन प्रन्थ में किया गया है। ४०. मन्दरेन्द्र अभिषेक, ४१. गुरुपूजोपलम्भन, भरत तदभव मोक्षगामी अवश्य थे किन्तु गृहस्थावस्था में ४२. यौवराज्य, ४३. स्वराज्य, ४४. चक्रलाभ, ४५. उनके द्वाग किये गए सभी कार्य मान्य एवं विधेय नहीं दिग्विजय, ४६. चक्राभिषेक, ४७. सामाज्य, ४८. हो जाते। निष्क्रान्ति, ४६. योगसन्मह, ५०. पाहत्य, ५१. तद्विहार, उन्होंने चारों मोर विजय प्राप्त कर दान देने की ५२. योगत्याग, ५३. अग्र निवृत्ति 1 सोची थी लेकिन उसके लिए कौन योग्य पात्र हो इसके ये क्रियाएं इस जीव के एक भव मे सम्पन्न नहीं लिए एक परीक्षण का प्रायोजन किया । इन्होंने जिनको होंगी अपित तीन भवों में सम्पन्न होगी। पहली क्रिया दया, प्रवण, हिंसा से बचने वाले समझा उन्हें ब्राह्मण वर्ण से ३२वी क्रिया तक मनुष्य भव मे, ३३वीं क्रिया से के रूप में स्थापित किया और उन्हें गर्भान्वय क्रिया, ३७वीं क्रिया तक स्वर्गलोक में एवं ३८वीं क्रिया से दीक्षान्वय क्रिया, क्रियान्वय क्रिया प्रादि करने का उपदेश ५३वीं तक फिर मनुष्य भव में जन्म लेने पर होगी। दिया है। पहली से १३वी क्रिया मनुष्य के माता-पिता द्वारा की यद्यपि प्रादिपुराण से प्राचीन किसी भी प्रामाणिक जावेगी। एक जीव इसी क्रम से मनुष्य बने, फिर इन्द्र ग्रन्थ मे इन क्रियाओं को करने का उपदेश नहीं मिलता बने, फिर मनुष्य भव धारण कर चक्रवर्ती एव तीर्थ कर है फिर भी भरत ने इनकी भूमिका बताते हुए कहा कि बने तब ये क्रियाएं पूर्ण हो। इस पूरे मवपिणी काल श्रावकाध्याय संग्रह मे वे क्रियाए तीन प्रकार की कही गई में केवल ३ चक्रवर्ती ही तीर्थ कर बन पाए है। उन्होंने है सम्यग्दृष्टि पुरुषों को उन क्रियाओं का पालन अवश्य अपने पूर्व भवों में ये क्रियाएं की हों ऐसा उल्लेख नहीं करना चाहिए। मिलता। स्त्रियों के लिए इन क्रियामों का विधान ही ५३ गर्भान्वय क्रियाएं इस प्रकार बताई गई है --- नही है। प्रतः इन क्रियायो को प्रत्येक सम्यग्दृष्टि करे १. भाषात, २. प्रीति, ३. सुप्रीति, ४. धूति, ५. ऐसा सम्भव नहीं हो सकता एक प्रश्न यह भी उठता है
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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