________________
भारत की ५३ कियायें
कि द्वितीय बार मानुष्य भव धारण करने पर प्रथम बीस क्रियाएं करने का विधान क्यों नहीं किया गया
लगता है कि ये सब क्रियाएं भरत ने अपनी राजकीय सत्ता के बल पर प्रजाजनो को करने को कह दी है लेकिन न तो इनका कभी प्रचलन रहा है और न किसी प्राचीन शास्त्र में उल्लेख मिलता है।
इस प्रसंग मे एक तृष्य घोर विचारणीय है। भरत ने भी ऋषभदेव से जाकर निवेदन किया कि मैने ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया है और उन्हे व्रतचिह्न सूत्र दिया है। लेकिन आपके रहते हुए मेरा यह करना ठीक है या नहीं ? इस विचार से मेरा चित्त डोलायमान हो रहा है। भगवान् ऋषभदेव ने कहा कि :
पायसूत्रधरा धर्ताः प्राणिमारणतत्पराः । वयुगे प्रवत्स्यन्ति सन्मार्गपरिपन्थिनः ।
४१५२
द्विजातिसर्जन तस्मान्नाद्य यद्यपि दोषकृत । स्वाद्दोष बीजमात्यां कृपाण्डवनात् ।। सर्ग ४१, इलो० ५४
पाप के चिन्हस्वरूप यज्ञोपवीत को धारण करने वाले और प्राणियों के मारने में तत्पर धूर्त ब्राह्मण आगामी युग में समीचीन मार्ग के विरोधी होंगे। पान ब्राह्मणों की रचना भले ही दोष रूप न हो किन्तु आगे पाखण्ड मतो के प्रवर्तन करने में दोष का बीज रूप है ।
यज्ञोपवीत पापसूत्र का विशेषण देकर भगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हे ये विधान नहीं लगाना ।
भगवान ऋषभदेव ने अपने शासन काल में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण ही स्थापित किए थे और उन्होंने इन क्रियाओं को करने का कथन नही किया ।
भरत द्वारा वर्गित ५३ कियाओं का किसी भी प्रामाणिक श्रावकाचार में उल्लेख नहीं मिलता । हाँ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने रयणसार में बावक के लिए निम्न ५३ क्रियाएं बताई हैं:
१२७
गुणवयतवसमपडिमादान जहागाहाणं प्रणतामियं । दंसणणाणचरितं किरिया तेवण सावया ॥
भणिया ३६
मूलगुण व्रत १२ तप १२ समता प्रतिमा ११. दान ४, जलगालन, रात्रिभोजन त्याग, सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक चारित्र ये आवक की ५३ क्रियाएं हैं। इन क्रियाओं का जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है ।
यदि हम ठीक से विचार करे तो दृष्टि से इन क्रियाओं का उपयोग एव जीवन मे गर्व, विवाह, चोटी या मूंज की डोरी या भोवती धारण करने नहीं है।
यह बात ठीक है कि भरत द्वारा वर्णित ५२ क्रियाओं का जैन शासन में न महत्त्व रहा, न प्रचलन हो रहा फिर भी कुछ भाई प्रादिपुराण में इसका उल्लेख होने के कारण इन्हें अपनाने के लिए कहते हैं । इनमे से कई क्रियायें जैसे गर्व विवाह आदि सामाजिकता के कारण से होती हैं उनके अतिरिक्त अन्य क्रियायें नहीं होती । श्रादि पुराण में कई ऐसी घटनाओं का मांस का सेवन, पर स्त्री हरण) उल्लेख किया गया है जो त्याज्य है, हम उन्हे करने लग जाने यह तो ठीक नहीं है।
धार्मिक जीवन की महत्व है। धार्मिक की डोरी या सूत का कोई महत्व
मुझे तब ग्राश्वर्य होता है जब कई विद्वानों से भी यह सुनने को मिलता है कि यज्ञोपवीत प्रादि संस्कारो का वर्णन श्रादि पुराण में मिलता है। जब उनसे इसके विस्तार में चर्चा की जाती है तो यह कह देते है कि पूरा प्रसंग हमारा देखा हुआ है।
पाठकों एवं विद्वानों से अनुरोध है कि वे इसका ठीक अध्यन कर समाज के सामने वास्तविक स्थिति रखे । सभव है मेरी समझ मे कही भूल रह जाय; क्योंकि भूल रह जाना संभव है । भूल को भूल स्वीकार नही करना महाभूल है इसलिए विद्वत्गण इस विषय मे अधिक प्रकाश डालें ।