SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रश का जयमाला-साहित्य डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री अपभ्रंश में साहित्य की पनेक विधाएं मिलती हैं, पर थी, इसलिए पाठकों को जानकारी के लिए पूर्ण पुष्पपाजतक समुचित मूल्यांकन नहीं किया गया । यहाँ ऐसे जयमाला प्रकाशित की जा रही है। प्राप्त जयमालाओं ही एक उपेक्षित विधा का निर्देश किया जा रहा है। मे यह रचना प्राचीन प्रतीत होती है। सम्भवत: इससे जयमाला का साहित्य केवल जैन साहित्य की ही देन है। पूर्व की रचना अभी तक नहीं मिली। इससे रचना का क्योंकि अनेक प्रकार की पूजामों को विविध राग-रागि- महत्त्व और भी बढ़ जाता है। भाषा सरल और प्रसाद नियों में पद्यबद्ध करने का कार्य जैन विद्वान एवं प्राचार्य गुण से युक्त है। अपभ्रंश भाषा के लालित्य के निर्देशन बहुत समय से करते चले पा रहे हैं। यह पुष्प जयमाला की दृष्टि से भी रचना महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। प्रायः जिनमूर्ति के कलशाभिषेकोत्सव के अनन्तर पूजा- सयल जिणेसर जयकमल पणविवि जगि जयकार । स्तवन के रूप मे गाई जाती रही है। केवल शब्द व अर्थ फुल्लमाल जिणवर तणी पभण भबियणतार ॥१॥ की दृष्टि से ही नहीं साहित्य की दृष्टि से भी ये महत्व- सिरि रिसभ प्रजिय संभव अभिणंदण पूर्ण है। सुमति जिणेसह पापणिकवण । प्रस्तुत जयमाला मध्य प्रदेश के भानपुरा के शास्त्र- पउमप्पड जिण णामें गज्ज, भण्डार के गुटके से प्रतिलिपि की गई है । भाषा और सिरि सुपासु चन्दप्पह पुज्जउ ॥२॥ भाव दोनों ही रूपों मे रचना सुन्दर है । रचना के लेखक मतमोयल पजिजज्जह. जिणि सेयांसु मणिहि भाविज्जह ब्रह्म नेमिदत्त हैं। ये मूलसंघ के प्रा० मल्लिभूषण के, वासुपुज्जजिणपुज्जुकरेप्पिणु, विमलुप्रणंतुषम्मुशाएप्पिण ॥ शिष्य थे । नेमिदत्त ने सिंहनन्दी का भी स्मरण किया है। ति परमल्लिजिणेसह. मणिसम्वय परमेसरु । रचना २५ छन्दो मे निबद्ध है। लेखक ने अपना परिचय नमि नेमोसरपाय पुज्जसिउ, स्वयं इन शब्दों में दिया है भवसायरहुं पाणिय देसित्थं ॥४॥ श्रीमलसंघ मंगलकरण, मल्लिभूषणगुरु णमि विमल । पासणाह भवपासणिवारण, वडढमाणजिणु तिवणतारण। सिरिसिंहणंदि अभिणंवि करि, मिवत्त पभणह सकल ॥ चवीस जिणेसर बंविवि, सिवि गामिणि सारव ब्रह्मनेमिदत्त मूलसघ सरस्वती गच्छ बलात्कार अभिणंदिव || गण के विद्वान् भ० मल्लिभूषण के शिष्य थे। इनके सिरिमलसंघ महिमारयणायर, गुरु णिग्गंथ णम सुयसायर सम्बन्ध में पं० परमानन्द जी शास्त्री ने प्रकाश डालते सिरिजिणफूल्लमाल बक्खाण, हए लिखा है-'आपकी ये सब रचनाएं वि० स० १५७५ नरभव तणां सार फल माण॥६॥ से १५८५ तक रची हुई जान पड़ती है । इससे माप प्रार्या-भो भवियण भव भवहरण तारण चरण समस्थ । सोलहवी शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे ।' माला. जाती कुसुम करंज लिहि फुज्जह जिण बौहत्य ॥७॥ रोहिणी के नाम से प्रकाशित यह रचना कही-कहीं त्रुटित निगी कद-जाती सेवत्ती बरमालती चंपय जुत्ती विकसतो १. पं० परमानन्द जैन शास्त्री: ब्रह्मनेमिदत्त और उनकी - बम्बर श्रीमाला गषविलासा कुल्जय धवला सोभंती ॥ रचनाएं, अनेकान्त, वर्ष १८, किरण २, जून १६६५, रतुप्पल फुल्लाह कमलनवल्लहि जूहीजुल्लहि जयवंती। पृ०८२-८४ मचकुंकयंबहि दमणयकुंबहि नाना फुल्लहि महकती।।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy