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________________ अपभ्रंश का जयमाला साहित्य सग्गमोकखसुहकारिणी मालजिणिवह सार । विणउ करेपिणु मंगियह जिम लागह भवपार ॥ ६ ॥ मौक्तिकदाम छंद-समोग्गर फुल्ल महक्कइ माल, मधुक्कर ढुवकहि गपरसाल सुपाडल पारिजाइ बिचित, जिणंजर पुज्जहु लोयपत्ति || सयल सुराधिप पुज्जिउ, पुज्जहु सिरि जिणदेउ । धणकण जणसपय लहहु, दुक्ख लगउ होइ छेउ || ११ || मौक्तिकदाम छद - सुरासुकिण्णर खेयर भूरि, जिणवु पयच्चाहं पञ्चहि नारि, पच्छर गावहिं सोक्खहधाम, जिfणवह सोहइ मोत्तियदाम ॥ भवियणजण जिणपयकमल माल महंघिय लेहु । नियलfच्छय फलु करहु दुक्खु जलंजलि बेहु ॥ १३ ॥ त्रिभंगी - दुख देह जलंजलि जिण कुसुमांजलि, दुज्जहु भवियण सोक्खकरं । जिणभवणि पवितं निम्मल चित्तं, मिलियउ चउवीसह संघवरं ॥ १४ ॥ इहु अवसर सार गुणह भडार गवि लाभइ बहु पुण्ण विणं । जिणवरणयमाला फुल्लि बिसाला, लिज्जइचंचलजाणिघण || पण जो कचणु रयणु परियणु भवणु वि सन्बु । अलबुम्बुव करि कण जिम चंचल में करहु गछु || १६ || पंचचामर छदम जाहू गब्बु देह दबु लेहु माल निम्मली तुषारहारचंदगौर कित्ती होइ उज्जली || सुरिवविदमूतरिव खयरव पुज्जिया । जिदिपायपोममाल सम्व दोस वज्जिया ॥ १७ ॥ १२९ fra जिन भवियण जिणभवणि करहु महोत्सबसार । मनवांछिय संपय लहह पुपु पावह भवपार ॥१८॥ सोमराजी छंद-भक्स्सेवपार महादुक्खहार, तिलोकैकसारं जणाणंदकारं । परं देवदेवं सुरिदेण सेवं जिणिद प्रणिदं जर्ज धम्मकंदं । १९ बलि बलि प्रवसरु णवि मिलइ गवि दोसइ थिर काह । जिणधम्महि मणु दि करहु काल गलंत जाई ||२०|| पचचामर छंद - गलति झत्ति जाइ बालु मोहजालु वड्ढई । सु होहि जाणु भण्व भाणु प्रग्गि जेम कढई । जिणिवचंद पायपुज्ज धम्मकज्ज किज्जई ॥ सुपसदाणु पुष्णगण्णु वयणिहाणु लिई ॥ २१ ॥ लिज्जए फलु णियकल तणउ लच्छियचपल सहाम्रो । सिरि जिणपुज्ज करेवि लहु मनि परि णिम्मलयो । त्रिभंगी - मणि भाउ धरेष्पिणु पुज्ज, करेfor मालमहोच्छव निम्मलम्रो । जिft भवणि करिज्जइ घणु वेचिज्जद्द सुह संचइ उज्जलमो णाणाविह तुरहि गभीरहि भरोभं भा सद्द सुहो । कंसालाहि तालहि मगलघबलाहि माल जिणिदह लेहु लहो । मालजिहि तणिय लेहु लहु तिहुवण तारण भवियण जण । उपगारसार संपयसुहकारण रोगसोगदालिद्ददुक्खु । वि नोड प्रांबई जिणवरपायपसायजीव वांछियफलपावद्द ॥ श्री मूलस घमंगलकरण मल्लिभूषण गुरु णवि विमल । सिरिसिंहणदि प्रभिणदि करि नेमिदत्त पभणई सकला || इति श्री जिन माला समाप्ता श्रीरस्तु ।। सफल साधना साधक ! तेरी मंजिल बहुत दूर है। उसे पाने के लिए तू साधना करता रह । साधना का मार्ग बड़ा विषम है। प्रत्येक कदम पर तीक्ष्ण कांटे बिछे हुए हैं। तेरी गति में बाधक बनने वाली विपदा के बड़े-बड़े पहाड़ I खड़े हैं । तेरी अमूल्य निधि को लूटने के लिए राग-द्वेष प्रादि जबर्दस्त तस्कर घूम रहे हैं। तुझे पराजित करने के लिए कोष प्रादि योद्धा श्रवसर निहार रहे हैं। काम-पिशाच अपनी सशस्त्र सेना सहित तुझे पराजित करने के लिए विस्फारित बदन तेरी प्रतीक्षा कर रहा शीत और ताप भी तुझे विचलित करने के लिए अपना अतुल पराक्रम for रहे हैं। अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग भी तेरी परीक्षा करने के लिए समुद्यत हैं । फिर भी साधक ! सावधान रहना, घबराना मत, बढ़ते जाना। समुद्र चाहे अपनी मर्यादा छोड़ दे, सुमेरु चाहे डगमगा जाए। सूर्य पूर्व दिशा को छोड़कर पश्चिम दिशा में उदित होने लगे, तो भी तू अपनी साधना से विचलित न होना । अनुकूल और प्रतिकूल कष्टों का सामना करते हुए भी प्रागे बढ़ते रहना । तेरी साधना अवश्य सफल होगी।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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