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________________ हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाय सम्बन्ध में विशेष विचार किया जाता । ग्रानेर भडार के एक गुच्छक में उनकी एकमात्र कृति 'मनकरहा रात' उपलब्ध है। जिसमे ग्राठ कडवक दिये हुये है, कवि ने मंगलगान के साथ ही अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को बुद्धि रहिन बनलाने हुए लक्षण और छन्द से रहित काव्य को अपने सम्बोधन निमित्त बनाने की सूचना की है। रचना सुन्दर और प्रसाद गुण को लिये हुए है। और रूपक द्वारा मन रूपी ऊंट को समझाने का प्रयत्न किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि जब एकएक इन्द्रिय का विषय उस उस इन्द्रिय वाले जीव का घातक है, तब जो पाचो इन्द्रियों का भोगी है उसकी क्या दशा होगी' सो देख मन की चंचलता से इन्द्रियों विषय की ओर दौड़ती हैं, उनमे संलग्न होकर जीव भजित प्रशुभ कर्मवश निम्न गतियो मे जन्म लेता है, मरता है, दुख उठाता है। मतः उस दुख से छूटने धौर इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकने के लिए मन, वचन श्रौर काय को दण्डित करते हुए, उनकी एकाग्रता बनाने के लिए श्रात्मा को शुभ ध्यान मे लगाने की आवश्यकता है । तपश्चरण से ही स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होती है । ग्रन्थ की भाषा हिन्दी के विकसित रूप को लिए हुए है। ग्रन्थ का प्रादि श्रन्त भाग निम्न प्रकार है :-- । सयल वि जिण वंदि वि मुणि श्रहिणवि वि लक्षण छद विवज्जिय । अप्पर ग्राहारामि कथ् पथासमि जइ हउ बुद्धि विवज्जियउ || जसु विसयहं उपरि ठाई बुद्धि, तसु धम्म सुणत हं कवण सुद्धि । एक्कल इदिय जिन जासु, पंच व पुणु परय हो दिति वास ॥ जिहि इंदी पसा निवारियो जल मज्झिमप्पु णीसारियो । करि करणि पसंगो पद प १. अनी माग मृग सलमीन विषयक इक ने मरते है। नतीजा क्या न पावें वे विषय चों जो करने है । मोग्गर घायं किउ खंड खंड ॥ महयर पाणिदिय गंध लु एड यो मुवउ सरोरुह मज्झि णर्याणदिय दोस पसंगएण, अप्पाणउ दट्ठ पयंग एण || परिभमइ कुरगउ तामरणि(णि), यही झुणि जम्म ण देइ कण्णु । पंचेदिय जीवहो दुक्ख दिति, पंचेदिप दुमाइ गमण लिति । पंचेदिय पुट्ट प्रणिट्ठ भाव, पदिय पंचल चल सुभाव || हवा पंचिदिय कवणु दोसु, मण हिडद्द तिवणि णिरवसेस | घता मणु चंचल भावद्द उप्पहि धावद्द भविसायर पडिय में पडिय ६१ बंधिवि जो ण घरेसइ । बुद्धिवि लित्यु मरेस ॥ १ अन्तभाग :जहणीरिज संजम डालई, तो मण कर ण रद्द कर मा विसय महावण वेल्लडी, तहिकारणि यह सुन हई | जिणु ण बहु पयले भविवजणा, निकुमुद अविसरणमणा मण वयण काय एकी करेद, सुहभाणं पुणु म्रप्या परे । गइ चउविह करइ करंतु सोइ, सो करहु भाउ जं! चलु लोइ । लोप हो म कहिय कर धम् धम्में फेडिज्जइ श्रसह कम्म । कम्मेण कोण पर सिविय जति, जति विप्रचिदित करति । त कर वि जिर्णसर संभवति सग्गाऽपग्ग हु वहि रमंति । संभरणु करहु सम्मत्त लेहू, लहु सग्गि प्रयाणउ जेम देहू । पत्ता- सम्मत परिज्जहु मणु चिजह करि वि सुणिम्मल विमलमई । पालु कवि बोस जसु मणु टोल, सो किम पावड़ परम गई ॥८
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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