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संत कबीर और द्यानतराय
डा० गंगाराम गर्ग
हिन्दी का मध्ययुगीन साहित्य अपनी विपुलता और सार जग प्राधार नामी, भविक जन मन रंजनो। व्यापकता की दृष्टि से गौरवपूर्ण स्थान रखता है। मध्य- निराकार जमी, प्रकामी, अमल देह अमंजनो। युग मे भारतीय जीवन और साहित्य मे क्रान्ति लाने वाले करो 'धानत' मुकति गामी, सकल भव-भय-भंजनो :२०८। दो प्रमुख साधक अवतीर्ण हुए-कबीर और तुलसी । दोनों के पथो मे पर्याप्त भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य मे परमातम परमेस परमगुरु, परमानन्द प्रधान । एकता थी । जन्म से ही क्रान्तिकारी, अक्खड़, फक्कड़ अलख अनादि अनन्त अतूपम, अजर अमर प्रमलान । और मस्तमौला फकीर कबीर की विचारधारा से प्रभावित निरविकार अधिकार निरंजन, नित निरमल निरमान । उत्तर भारत मे दादूपंथ, रामस्नेही, रैदासी आदि अनेक जती व्रती मुन ऋणी सुखी प्रभु, नाथ धनी गुन ज्ञान । सम्प्रदायों का प्राविर्भाव होता रहा । सत और वैष्णव कबीर और उनके सभी अनुयायियों ने इस्लाम धर्म काव्य परम्परामो के साथ-साथ मध्ययुग मे तीसरी काव्य- से प्रभावित होकर ब्रह्म को समस्त खलक का कर्ता भी परम्परा और विकसित हुई, वह थी जैन भक्ति काव्य कहा है तथा उसे वैष्णवशाली प्रमाणित किया है । इस्लाम परम्परा। बनारसीदास, जगजीवन, जगत राम.द्यानतराय, की तरह उन्होंने भी एकेश्वरवाद की प्रतिष्ठा की है। पाश्वंदास और बुधजन प्रादि अनेक जैन कवि अपनी द्यानतराय प्रादि जैन कवियो ने ब्रह्म को न तो सष्टि का भक्तिपूर्ण रचनायो से इस काव्य-परम्परा को विकसित कर्ता ही कहा और न वैभवशाली। एकेश्वरवाद की करते रहे। आगरा निवासी द्यानतराय (सं०१७३३. अपेक्षा उनकी प्रास्था अनेकेश्वरवाद में रही। अवतारवाद. १७८३) अपनी सौ रचनाओं के अतिरिक्त ३२३ भक्ति- एकेश्वरवाद, अद्वैतवाद आदि का तर्कसम्मत विरोध करते पूण पदो के कारण जैन भक्ति परम्परा की प्रमुख कडो हुए धानतराय कहते है-"शुद्ध, निरजन और अविकारी है। सत कवीर और द्यानतराय के काव्यालोचन के ब्रह्म गर्भ मे क्यो प्रायेगा? अविनाशी ब्रह्म अंशो मे फंसे माध्यम से दो भिन्न-भिन्न काव्य परम्परामो में व्याप्त विभाजित हो गया ? यदि सभी प्राणियो में एक हो ब्रह्म समान दृष्टिबिन्दुओं को समझने से भारतीय संस्कृति की प्रश है तो एक समन्वयवादिता भी प्रमाणित हो सकेगी।
धनवान और दूसरा गरीब कैसे ?"
द्यानतराय ने जैन परम्परा के अनुसार जिनेन्द्र के कबीर आदि सभी सत निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। ४६ मूल गणों की चर्चा भी की है। उन्होने ब्रह्म को अजर, अमर, निराकार, निरंजन, अक्षय सतगुरु और साधुः
और अचल कहा है। वह परमात्मा और परमानन्द भी सतगुरु और साधु दोनों को ही ईश्वर के समान हैं । ब्रह्य नित्य, निर्मल, अनादि और अनन्त है। धानत प्रादर देना निर्गुण और जैन दोनों ही भक्तों की विशेषता राय के ब्रह्म का स्वरूप निगुणियों के समान भी है :- रही है। दोनों ही भक्तों ने गुरू और साधुओं में क्रोध, तुम तार करुणाधार स्वामी, प्रादिदेव निरंजनो। मान, छल, लोभ, राग-द्वेष आदि दुर्गुणों का प्रभाव पाया १. अनेकान्त, अक्टूबर १९६७, पृ० १७७, पं० परमानन्द
है तथा उनको सत्य, तप, अपरिग्रह, सरलता, सत्यता व जैन शास्त्री का लेख।
२. जैन पद सग्रह, चतुर्थ भाग, पद १७८ ।