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२४८२४, कि०६
( २ ) मध्य परिमाण सिद्धान्त में अन्यदर्शनों की भाँति शकर ने भी यह दोष बतलाया है कि आत्मा श्रवयव वाले एव अनित्य शरीर में रहता है तो उसे भी श्रनित्य मानना पड़ेगा और अनित्य होने से मोक्षादि संभव न हो सकेगे। उक्त प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि भात्मा को अनित्य तो उस समय माना जा सकता था, यदि उसके अवयव किसी अन्यद्रव्य के संघात से कारण पूर्वक बने होते । जिस वस्तु के अवयव सकारण होते हैं वह विनाशशील होती है जैसे कपड़ा तंतु वयवो सा बना होता है इसलिए तंतुओं के क्षीण-जीर्ण होने से कपड़ा नष्ट हो जाता है । किन्तु जिस पदार्थ के श्रवयव श्रकारण पूर्वक होते है उसके अवयव नष्ट नहीं होते है। जैसे परमाणु के अवयव किसी कारणपूर्वक नही होते हैं इसलिए श्रवयव विश्लेषण करने पर वह नष्ट नही होता है। इसी प्रकार प्रविभागी द्रव्यस्वरूप आत्मा के प्रवयव घट-पट जैन होकर परमाणु की तरह प्रकारण पूर्वक होते है इसलिए आत्मा श्रवयव विश्लेषण करने पर नष्ट नही होता है। अतः द्रव्यायिक नय की अपेक्षा से आत्मा नित्य या विनाशशील नही है । इसलिए मोक्षादि के नाव की समस्या जैन सिद्धान्त में नही उत्पन्न होती है। दूसरी बात यह है कि पर्यायार्थक नय की अपेक्षा जैन सिद्धान्त में प्रात्मा को कयचित् अनित्य माना है। कम्पन क्रिया विना
क्योकि शरीर के कटे हुए अंग मे
आत्मप्रदेशो के संभव नहीं हैं। कमल नाल का उदाहरण 이 यह भी बतलाया गया है कि छिन्न अंग मे श्रात्म
अपने पहले वाले शरीर के भ्रात्मप्रदेशो मे पुनः
पष्ट हो जाते हैं, यही कारण है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि छिन्न अंग की श्रात्मा पूर्व शरीर की श्रात्मा म भिन्न है'। इसलिए यह कहना कि आत्मा अनित्य है पि नहीं होता।
(३) मध्यम परिमाण सिद्धान्त में एक कठनाई यह
शाकर भाष्य २।३३-३६, डा० राधा कृ० भा० द०
भाग १ पृ० २८६
तवायंश्लोकवार्तिक पृ० ४०१
तत्वार्थ राजवार्तिक पृ० ४५६
३. स्वाद्वादमञ्जरी पृ० १०२ प्रमेय क० मा० पृ० ५०६
?
२.
अनेकान्त
भी कही जाती है कि सक्रिय आत्मा मूर्तिक हो जाने से मूर्त शरीर में कैसे प्रवेश कर सकता है ? इसका उत्तर यह है कि यदि पूर्वपक्ष मूर्त का अर्थ 'असवंगत द्रव्य परिमाण मानता है तब तो जैन सिद्धान्त मे कोई दोष नही है क्योकि इस सिद्धान्त मे प्रसर्वगत द्रव्य परिमाण वाला श्रात्मा स्वीकार किया गया है । और यदि मूर्तिक सेवापर्य 'रूपादिवाला है, तो मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि यह कोई व्याप्ति नहीं है कि जो सक्रिय हो वह मूर्तिक ही हो। श्रौर यदि उक्त व्याप्ति मानी भी जाय तो न्यायवैशेषिक सिद्धान्त मे सक्रिय मन को रूपादियुक्त मूर्ति को मानना पड़ेगा । श्रतः समान दोष होने से जिस प्रकार मूर्तिक मन शरीर मे प्रवेश कर सकता है उसी प्रकार मूर्तिक आत्मा का शरीर में प्रवेश समझना चाहिए' । इसके अलावा जल प्रादि रूपादियुक्त मूर्तिक द्रव्य का पृथ्वी आदि मूर्तिक द्रव्य मे प्रवेश प्रत्यक्ष देखा ही जाता है इसलिए मात्मा को सक्रिय मानने में कोई दोष नही है । यदि आत्मा को सक्रिय न माना जाय तो उसे निष्क्रिय मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से संसार का प्रभाव हो जायेगा; क्योकि निष्क्रिय आत्मा एक शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में गमन क्रिया नही कर सकती है ।
(x) एक वह भी ग्रापत्ति दी जा सकती है। कि देह परिमाण प्रात्मा दिग्देशान्नवर्ती परमाणुओं को अपने शरीर के योग्य विना सयोग किये कैसे ग्रहण कर सकेगी ? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया
गया कि यह कोई नियम नहीं है कि दो संयुक्त पदार्थों में श्राकर्षण नहीं हो सकता है । यद्यपि लोहा
चुम्बक से संयुक्त नहीं होता है तो भी लोहे को
अपनी प्रोर आकर्षित कर लेता है, उसी प्रकार प्रात्मा भी अपने शरीर के योग्य परमाणुत्रों विना संयोग किये प्राकर्षित कर लेता है। इसलिए उक्त दोष म्रात्म देह परिमाण सिद्धांत मे सभव नहीं है । अतः श्रात्मा देह परिमाण है, और वह पूरे शरीर में व्याप्त रहता है।
१.
२.
३.
४.
न्याय कुमुदचन्द्र पृ० २६८
स्याद्वाद मं० पृ० १०१
प्रमेय क० ना० पृ० ५८०
न्याय कुमुदचन्द्र २६६