________________
शिलालेखों में गोलापूर्वान्वय
भाषा पढ़ पढ़ावही खटपुर श्रावक वृन्द ॥३१२ प्रापका संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार था । पापकी ग्रंथ रचना में प्रेरक
यह कृति बड़ी सुन्दर है। प्रस्तुत ग्रन्थ चकत्तान्वयी शाह गोलापूर्व समाज के पूर्वज घर्मनिष्ठ व्यक्तियों ने जहाँ जहाँ के राज्यकाल मे रचा गया है। देव-गुरु की भक्ति द्वारा जिन मदिर निर्माण, जिनबिम्ब पंच कल्याणक प्रतिष्ठा, रथोत्सव और चतुर्विध सघ को
कुन्दकुन्दान्वय मे नन्दिसंघ बलात्कारगण सरस्वती दानादि का परिचय दिया है । वहा उन्होंने श्रुतभक्ति को
गच्छ के भट्टारक सिंहकीति धर्मकीर्ति के पट्टधर भारतीभी नहीं भुलाया। अनेक ग्रन्थ रचे और और दूसरे
भूषण जगतभूषण हुए । जो ग्वालियर के पट्टधर और अच्छे विद्वानों से बनवाकर मंदिरादि में भेंट दिये हैं, और
विद्वान थे। उन्ही की माम्नाय मे गोलापूर्ववंश में दिव्यलिखकर या लिखवाकर व्रतीपात्रों को भी प्रदान किये है।
नयन हुए। उनकी पत्नी का नाम दुर्गा था। उससे दो इससे उनकी श्रुतभक्ति भी प्रकट है। यहां ग्रंथ बनवाने
पुत्र हुए, केवलसेन और धर्मसेन । दिव्यनयन के द्वितीय का एक उदाहरण मात्र दिया जाता है
पुत्र मित्रसेन की पत्नी यशोदा से भी दो पुत्र उत्पन्न हुए। केवल कल्याणार्चा (समवसरण पाठ) की रचना
प्रथम पुत्र परम प्रतापी एव यशस्वी भगवानदास का जन्म कविवर रूपचन्द जी ने सबत् १६६२ में की थी। पंडित
हुआ, जो सघ का नायक और धर्मात्मा था। दूसरा पुत्र रूपचन्द जी भट्टारकी पडित होने के कारण पांडे कहलाते हारवश भी घमप्रमो पोर गुण सम्पन्न था। भगवानदास थे। वे कुह नाम के देश में स्थित सलेमपुर के निवासी
की पत्नी का नाम केशरिदे था। उससे तीन पुत्र हुए। थे । अग्रवालान्वयी मामट के पाँच पुत्रो मे से एक थे।
महासेन, जिनदास और मुनिसुव्रत । सघाधिप भगवान
दास ने जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा करवाई थी । पौर १. श्रीमत्सवत्सरेऽस्मिन्नरपतिनुतयद्विक्रमादित्य राज्ये- सघराज की पदवी प्राप्त की थी। वह दानमान मे कर्ण
5 तीतेदृगनंदभद्रांशुकृत परिमिते (१६९२) कृष्णपक्षे के समान था। इन्ही भगवानदास की प्रेरणा से पडित ष (') मासे देवाचार्यप्रचारे शुभनवमतिथौ सिद्ध- रूपचन्दजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ समवसरण पाठकी रचना की योगे प्रसिद्धे, पोनर्वस्वित्पुडस्थे (?) समवसृति मह है। इसमें कवि ने भगवानदास की जो प्रशसा की है वह प्राप्तमाप्ता समाप्ति ॥३४॥
अतिशयोक्ति को लिए हुए है ।
उपदेशी पद
कविवर धानतराय मिथ्या यह संसार है, मुठा यह संसार है रे ॥टेक। जो वेही षटस सौ पौष, सो नहिं सग चल रे। औरन को तोहि कौन भरोसो, नाहक मोह कर रे ॥१ सुख की बातें बुझ नहीं, दुखको सुक्ख लख रे। मूढो माहीं माता डोले, साषौं पास रे रे ॥२ मुठ कमाता सूठी खाता, मूठी माप पै रे। सच्चा साई सूझे नाहीं, क्यों करि पार लगै रे ॥३ जमसों डरता फूला फिरता, करता मै मैं मैं रे। खानत स्याना सो हो जाना, जो प्रभु ध्यान पर रे॥४