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________________ अनेकान्त २७४, वर्ष २४,कि. ६ नुराग से रहित, निर्भय और इस लोक व परलोक संबंधी जिस प्रकार विषम स्थान के ऊपर चढ़ने के लिये लाठी या प्राशसा (प्रभिलाषा) से विहीन होता हुमा ध्यान में रस्सी प्रादि का सहारा लिया जाता है उसी प्रकार उत्तम निश्चल होता है। ध्यान पर प्रारूढ़ होने के लिये उक्त वाचना प्रादि का २. देश-ध्यान के योग्य स्थान वह होता हे जहाँ मालम्बन लेना आवश्यक समझना चाहिए। यवती स्त्री, पशु, नपुसक और कुशील-जुवारी व ६. क्रम- ध्यान की प्रतिपत्ति का क्रम केवली के शराबी प्रादि-जन का संचार न हो। यह अपरिपक्व भवकाल मे-मुक्तिप्राप्ति के निकटवर्ती अन्तमहतं में ध्याता को लक्ष्य करके कहा गया है. किन्तु जो सहनन (शैलेशी अवस्था में)-मनोनिग्रह प्रादि रूप है-प्रथमतः और धैर्य से बलिष्ठ होते हुए ज्ञानादि भावनामो के मनोयोग का निग्रह, पश्चात् वचन योग का निग्रह और व्यापार मे अभ्यस्त हो चुके है ऐसे मुनि जन के लिए ध्यान तत्पश्चात् काययोग का निग्रह करना है। केवली को का कोई स्थान नियत नही है उनके लिए जनसमुदाय छोड़कर अन्य ध्याता के जिस प्रकार से भी समाधान समाप्त ग्राम और निर्जन वन में कोई विशेषता नहीं होता है उसे ही ध्यान की प्रतिपत्ति का क्रम जानना है। तात्पर्य यह कि मन को स्थिर कर लेने वाले वैसे चाहि मनि जन जिस किमी भी स्थान में निश्चलतापूर्वक धम- ७. ध्यातव्य-ध्यातव्य का अर्थ है ध्यान का विषय, ध्यान कर सकते है। ध्याता के लिए जहाँ भी मन, वचन जिसका कि उस में चिन्तन किया जाता है। वह प्राज्ञा, व काय योगो का स्वास्थ्य-स्वरूपस्थिति-सम्भव है वही अपाय, विपाक और संस्थान के भेद से चार प्रकार का स्थान ध्याता के लिए उप क्त होता है। इतना अवश्य है है। ग्राजा के विषय मे ध्याता वह विचार करता है कि कि वह प्राणिहिमा ग्रादि से रहित होना चाहिए। जिन भगवान् उस दीपक के समान है जो समीपवर्ती पदार्थों ३काल- इसी प्रकार काल भी ध्यान के लिए वह को बिना किसी भेदभाव के प्रकाशित करता है। दीपक उत्तम माना गया है जिसमे उपयुक्त योगा को समाधान से उनमे यह एक विशेषता भी है कि वे लोक मे वर्तमान प्राप्त होता है-उसके लिए दिन-रात आदि का कुछ सभी त्रिकालवी पदार्थों को प्रकाशित करते है-उन्हे नियम नही है। उदासीनभाव से केवल जानते-देखते है । इस प्रकार सर्वज्ञ ४. प्रासन-यही बात प्रासन के विषय में भी सम व वीतराग होने के कारण वे तत्व का अन्यथा प्ररूपण झना चाहिए-पद्मासनादि रूप शरीर की जो अवस्था नही कर सकते । इसीलिये उनके द्वारा उपदिष्ट वस्तुस्व. ध्याता के धर्मध्यान में बाधक नही होती वही प्रासन ध्यान । रूप का जिनाज्ञा के प्राश्रय से उसी प्रकार का श्रद्धान के लिए उचित माना गया है। विशेष इतना है कि उसमे करना चाहिए। यदि बुद्धि की मन्दता, उपदेशक प्राचार्य भी योगो का समाधान होना चाहिए। अभिप्राय यही है मादि के प्रभाव अथवा सूक्ष्म पदार्थों की दुरवबोधता के कि ध्यान के लिये देश, काल और चेष्टा (पासनादि रूप कारण जिज्ञासित पदार्थ का निर्णय नही होता है तो शरीर की अवस्था) का कोई नियम नही है। इन सबमें भी "जिन भगवान् अन्यथा कथन करने वाले नही है' इस । केवल योगो का समाधान अभीष्ट है। कारण यह कि प्रकार की दृढ श्रद्धा के साथ उसे वैसा ही मानकर उसके कैवल्य प्रादि की प्राप्ति का एक प्रधान कारण वही है। विषय मे शका प्रादि से राहत होना चाहिए। y. प्रालम्बन-पागम से सम्बद्ध वाचना, प्रच्छना, अपायके विषय में ध्याता यह विचार करता है कि जो परावर्तन और अनुचिन्तन ये तथा समीचीन धर्म से अनुः जीव राग, द्वेष एवं प्रास्रव प्रादि क्रियानों में प्रवृत्त रहते गत सामायिक आदि ये सब धर्मध्यान के पालम्बन है। है वे इस लोक और परलोक दोनों लोकों में दुःख भोगते १. प्रात्मानमात्मन्यवलोकमानस्त्व दर्शन-ज्ञानमयो वि- है, इसीलिए आत्महितेच्छु के लिए उनका त्याग करना शुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोऽपि साधु प्रावश्यक है। लभत समाधिम् ॥ (द्वात्रिंशतिका अमित. २५) २.त. सू.६-३६ ।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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