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________________ ध्यानशतक : एक परिचय २७५ विपाक का अर्थ कर्मका परिपाक है। यह प्रकृति, स्थिति, धर्मध्या 7 के ध्याता पूर्व दो शुक्लध्यानों-पृथक्त्ववितर्क प्रदेश मोर अनुभाग के भेद से चार प्रकार का है । इन सविचार पोर एकत्ववितर्क भविचार-के भी ध्याता हैं। चारों में प्रत्येक शुभ व अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। विशेष इतना है कि वे अतिशय प्रशस्त संहनन (प्रथम) यह कर्म का विपाक मिथ्यादर्शनादि के प्राश्रय से विविध से युक्त होते हुए चौदह पूर्वो के धारक होते है । अन्तिम प्रकारों में परिणत होता है। इस प्रकार धर्मध्यान का दो शुक्लध्यानो-सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति और व्यूपरतक्रियाध्याता कर्मविपाक के विषय में अनेक प्रकार से चिन्तन प्रतिपाती के ध्याता क्रम से सयोग के वली और किया करता है। प्रयोगके वली होते है। ध्यातव्य के चतुर्ग भेद (सस्थान) मे ध्याता धर्म व अनप्रेक्षा-जिस मुनि ने पूर्व में धर्मध्यान के द्वारा अधर्म प्रादि द्रव्यो के लक्षण. ग्राकार, आधार, भेद और अपने अन्तःकरण को सवासित कर लिया है वह धर्मध्यान प्रमाण के साथ उनकी उत्पाद, स्थिति एवं भग (पय) के समाप्त हो जाने पर भी सदा प्रनित्यादि बारह रूप अवस्थानों का भी विचार करता है। साथ ही वह अनुप्रेक्षाग्रो के चिन्तन में निरत होता है। पंचास्तिकायस्वरूप अनादिनिधन व नाम-स्थापनादि रूप १०. लेश्या-धर्मध्यानी के क्रम से विशुद्धि को प्राप्त चार करता हुआ होने वाली तीव्र-मध्यमादि भेदयुक्त पीत, पद्म प्रोर शुक्ल उसमें अवस्थित पथिवियो, वात वलयो, द्वीप-समुद्रों, नारक- नीलेशी विलों, देवविमानों और भवनो आदि के प्राकार का ११. लिंग-धमध्यान का परिचायक लिंग जिनविचार करता है । वह यह भी विचार करता है कि उप प्ररूपित पदार्थों का श्रद्धान है जो पागम (सूत्र), उपदेश योगस्वरूप जो जीव है वह अनादिनिधन, शरीर से -सत्र के अनुसार कथन, प्राज्ञा (अर्थ) और निसर्ग भिन्न, अरूपी, कर्ता और अपने कर्म का भोक्ता है । (स्वभाव) से होता है। प्रकृत धर्मध्यानी जिन-साधुओ के अपने ही कर्म से निर्मित उसका ससाररूप समुद्र जन्म गुणों का कीर्तन-सामान्य से उल्लेख-और उनकी भक्तिमरणादिरूप अपरिमित जल से परिपूर्ण, मोहरूप प्रावों पूर्वक प्रशमा करता हुमा विनय और दान से सम्पन्न (भवगे) से सहित और अज्ञानरूप वायु से प्रेरित सयोग होता है। साथ ही वह सामायिकादि बिन्दुमार पर्यन्त श्रुत, व वियोग रूप लहरों से व्याप्त है। उससे पार कराने मे व्रतादि के समाघानस्वरूप शोल और सयम में रत समर्थ वह चारित्ररूप विशाल नौका है जिसका बन्धन रहता है। सम्यग्दर्शन और कर्णधार (नाविक या मल्लाह) सम्यग्ज्ञान १२. फल-पुण्य का प्रास्रव, सबर, निर्जरा और है। इसी चारित्ररूप नाव पर चढ़कर मुनिजनरूप व्या- देवसख की प्राप्ति यह सब शभानुबन्धी उस घमध्यान का पारी निर्वाणरूप नगर को प्राप्त हुए है। फल है । इस प्रकार उपयुक्त बारह द्वारो के समाप्त हो ८ ध्याता-उक्त धर्मध्यान के ध्याता सब प्रमादो से जाने रहित व ज्ञान रूप धन से सम्पन्न क्षीण मोह (क्षाक) पौर शक्लध्यान-'शोधयति अष्टप्रकार कर्ममल शुचं व उपशान्त मोह (उपशामक) मुनि माने गये है। ये ही क्लमयतीति शक्लम' इस निरुक्तिके अनूमार जो ज्ञानावर१. यहा टीकाकार हरिभद्र सूरि ने धर्माधर्नादि द्रव्यो १. यहा (६४) हरिभद्रसूरि ने गाथोक्त 'पूर्वघर' की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूपता को सिद्ध करते समय विशेषण अप्रमाद वालो (अप्रमत्ता) का बतलाया है। प्रमाण के रूप मे "घट-मौलि-सुवर्णार्थी .." आदि इसे स्पष्ट करते हुए उन्होने यह कहा है कि इस जिन दो कारिकाओं को उद्घन किया है वे प्राप्त- प्रकार से उक्त प्रादि के दो शुक्ल ध्यान माष तुष मीमांसा की ५६-६० सख्या की कारिकाये है। ये मरुदेवी प्रादि अपूर्वधरों के भी घटित होते हैं। दोनो कारिकाए उक्त हरिभद्र सूरि के शास्त्रवार्ता- २. इस फल का निरूपण यहा न करके प्रागे शुक्लध्यान समुच्चय (७, २-३) मे भी समाविष्ट है। के प्रकरण में (गा. ६३) किया गया है।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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