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गणकीर्ति कृत चौपदी
डा० विद्याधर जोहरापरकर मराठी में जैन साहित्य की परम्परा के अग्रदूत गुणकीति-जो पन्द्रहवीं शताब्दी के गुजराती साहित्यकार ब्रह्म जिनदास के शिष्य थे-उनके कुछ पद देउल गाँव (जिला बुलडाणा, महाराष्ट्र) के जिनमन्दिर को एक जीर्णोथी में मिले हैं। इन्हीं में से एक यहां दिया दिया जा रहा है। इसमें एक ध्रुपद और चार छंद हैं जिनमें मराठी का गुजराती--प्रभावित स्वरूप स्पष्ट देखा जा सकता है। कवि के शब्दों का सरल रूपान्तर इस प्रकार होगा :
हम श्री गुरु के शिष्य हैं, उनके चरण प्रक्षालन कर वह जल पिएंगे। अब तक योग का अभ्यास करने में समय गंवाया, अब मानन्द का रस लेकर जिएंगे। योगो लोगो, बाबू लोगो, अवधूत पुत्रों, समझ लो ! जो सद्गुरु के वचनों से ज्ञान प्राप्त करते हैं वे अनन्त मुक्ति सुख में मग्न होते हैं । हमारे गुरु के कोई गुरु नहीं हैं, उनके प्रासन निराले ही हैं। वे शुक्ल ध्यान की भूमि पर बैठे हैं, मोंकार रूपी सींग बजाते हैं जिससे सारा आकाश गंज रहा है, उनके मुख में अनादि वेद (जिन. वाणी) के दर्शन हुए हैं । वे साकार रूप में उन्मन हुए और उनके सारे कार्य रुक गये। संकल्प और विकल्प दोनों का अस्त हुआ और सार रूप आत्मतत्त्व ही बचा रहा। उनका शरीर तो दिखता है किन्तु छाया नहीं दिखती; क्योंकि उनके दिव्य शरीर से सप्तधातु क्षीण हो गये और उन्हें नौ केवललब्धियां प्राप्त हुई हैं।
मूल पद हमें तो घेला श्रीगुरु केरा चरण पखाला नीर पिऊ । योग अभ्यासे कालु वेचियला आनंद रसेवि जोवो ॥ध्रु०॥ बुझो जोगीलो बुझो बाबुलो बुझो अवधूत- पुता। सद्गुरुवबने जे नर बुझले अनंत सिव सुखा मुता ।।१ निगुरो गुरु मोरा मिरालो प्रासन शुक्लध्यान भूमो बैठा।
ओंकार सोंगी बाजे गगन मंडल गाज़े अनादि वेद मुखी दीठा ॥२ साकाररूपी उनमन मइले खुटले व्यापार व्यापार । संकल्प विकल्प दोन्ही मावलले निजतत्वा राहिले सार ॥३ कायां तो दीसे छाया न दीसे सप्त धात गेले खीन । नव केवल लब्धी प्रापति- पावले गुनकीर्ती म्हने देव जिन ॥४