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________________ प्रोम् प्रहम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ - - वष २४ । कारण } बोर-सेवा-मन्दि वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६७, वि० सं० २०२७ किरण २ ॥ १९७१ अभिनन्दन जिनस्तवन नन्द्यनन्तय॑नन्तेन नन्तेनस्तेऽभिनन्दन । नन्दनधिरनम्रो न नम्रो नष्टेऽभिनन्धन ॥२२ -प्राचार्य समन्तभद्र अर्थ-समृद्धि-सम्पन्न, अनन्त ऋद्धियों से सहित और अन्त रहित हे अभिनन्दन स्वामिन् ! आपको नमस्कार करने वाला पुरुष (पापके ही समान सबका) ईश्वर हो जाता है। जो बड़ो-ब ऋद्धियों के घारी हैं वे आपके विषय में अनम्र नहीं हैं-पापको अवश्य ही नमस्कार करते हैं और जो आपकी स्तुति कर नम्र हुए हैं वे कभी नष्ट नहीं होते-अवश्य ही अविनाशो मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-जो सच्चे हृदय से भगवान को नमस्कार करते हैं वे अनेक बड़ी ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं। और अन्त में कर्मों का क्षय कर अविनाशी मोक्षपद पा लेते हैं। इसलिए प्राचार्य ने ठीक ही कहा है कि पापको नमस्कार करने वाले पुरुष पापके समान संसार के ईश्वर हो जाते हैं ॥२२॥
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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