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प्रज्ञात जैन कवि और उनको रचनायें
कथा कही है। माता-पिता के मना करने पर भी नेमिनाय ने प्रसिद्ध तीर्थ 'राणापुर' की यात्रा की; उसी का वर्णन का विरक्ति के साथ ही राजुल भी प्रायिका बन गई है। इस मे किया गया है । 'राणापुर को एक अलौकिक झांकी राजुल की विरहोक्तियो के अतिरिक्त दार्शनिक विचार दृष्टव्य है -- भी इस रचना मे बिखरे पड़े है
पंच से बावन पुतली रे लाल, अपछर में प्रनिहारि । बाब बे यह संसार प्रसार, ताते रहीये मौन में जी। रंभादेवी उलस रे लाल, चहंदिसि च्याज पौलि । बावे वे ई संगति दुष अपार, लष चौरासी जोन में जी।
पांच तीरथ मांहे भला रे लाल, सेवं जो गिर नारि । बावे लष चौराणी जोन, बावे बहु दुष पाइया। तोरण एक सो जाणिये रे लाल, थांभा दोइ हजार । रोग सोग वियोग भरि करि, जरा मरन सताइया जी।
८ पाहू: यह संसार दुष भंडार, देष्यो क्यों न मन समझाइये।
इनकी एक दार्शनिक रचना 'द्वादशानुप्रेक्षा' तेरहपंथी बेगि मुझहि पठाइ बावे, पीव अपने संग जाइये।
मन्दिर टोंक के गटका नं. ५० में पृ. ७१-७८ पर अंकित कवि की दूसरी रचना 'चौबीसी' में २४ तीर्थंकरों
है। इसमें कुल ३६ छंद है। इसमें १२ प्रनप्रेक्षानों को के प्रति दैन्य निवेदन है।
बड़ी सरल विधि से ममझाया है। पुदगल द्रव्य से ५ जसलाल 'विनोदी'
यामदिन हटाने के सम्बन्ध में कवि कहते हैं"विनोदी' उपनाम के दूसरे कवि जसलाल है। तेरह
ए संसारह भाव, परसौ को प्रीति ।। पंथी मन्दिर टोक के एक गटके ५० बमें इनकी सुष दुष सब भनियो हो, देषि पुवगल की रीति । रचना 'सुमति कुमति को झगडो' संकलित है। इसमें पुदगल दरव की रीति देषी, जद सुष दुष सब भानिया। सुमति रूपी नारी अपनी दौरानी कमति को अपने मि. चहं गति चौगसी लष्ष जोणिह, प्रापर्णा पद जांनिया। तम चेतन' से नेह न करने की शिक्षा देती है, न मानने
इह प्रापनों पद सुद्द चेतन, तृपति दृष्टि जु दीजिए। पर उसे फटकारती भी है
अनादि नाट जु नटत पुदगल, तासु प्रीति न कीजिए। जिण तो सौं नेह लगायो, जाको त मल गमायो। ६ सभाचंद : जसलाल विनोदी गाव, तोहि तउ सरम न प्रावै ।।। इनकी एक रचना परमार्थ लहरी में २० छद है।
यह रचना जैन मन्दिर निवाई के एक गुटके मे सकलित ६षेतसी विलाला : यह विलाला गोत्रिय खंडेलवाल जैन थे। इनकी
है । 'परमार्थ लू हरि' शास्त्र-निष्ठा, गुरु-भक्ति सम्यक्त्व 'सील जखडी' नामक रचना तेरहपथी मन्दिर टोक के
भावना, सप्त व्यसन, अणुव्रत, प्रादि नैतिक विषयो को गट का नं. ५० ब मे सकलित है। 'सील जखडी' में संक
चर्चा है । शैली उपदेशमयो है--
पर धन परत्रिया परहरी, कोज्यौ रे उपकार । लित है। 'सील जखड़ी' में नारी की निन्दा करते हुए
ज्यों सुख पावं सुरगां तणाजी, मनोक्रम उतर पार ।। सयम रखने की प्रेरणा दी है
१० दास: मारी रुप दीप दीवलो जिसौजी, कामी पुरुष पतंग, सोरठ राग मे लिखित एक गीत 'जीव जखड़ी' में पर नारी के कारण जी, होम्यो प्रापणों अग,
कवि ने चेतन को अपना स्वरूप समझने की ओर प्रेरित सुग्यानी नाह नारी रूप नै जोय ।
किया है
जीव लाय मन विषयन सेथी, चहुंगति मैं अति भ्रम्यो। ७ दिव सुन्दर :
जिन धर्म तजि मिथ्यात सेयो, रहियो सुबांध्यो दुध मन्यो। यह पामेर गच्छ के मुनि देव सुन्दर के शिष्य थे। संसार में सब सार जाण्यो, मोह परिग्रह तुम कीया। इनकी एक रचना 'राणापुर स्तवन' तेरहपंथी मन्दिर टोंक कवि 'दास' कुवास छोड़ो, तुम त्रिभुवन पति हो जीव ।। के ग्रन्थांक १५० ब में संकलित है । संवत् १४६२ में कवि