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राजस्थान में जैन धर्म व साहित्य : एक सिंहावलोकन
डा० गजानन मिश्र एम० ए० पी-एच० डी०
राजस्थान में जैनधर्म का प्रसार :
के कारण ही जैन धर्म के अन्तर्गत विभिन्न गच्छो को जैनधर्म भारत के प्राचीन धर्मों में से है। इसके स्थापना हुई। प्रवर्तक ऋपभदेव माने जाते है। इन के पश्चात् २३ अन्य राजस्थान में जैनधर्म के सकेत ईसा से दो शताब्दी तीर्थ धर भी हए जिनमे अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महा. पूर्व तक के मिलते है। लेकिन ईसा की पाठवी शताब्दी वीर थे। महावीर स्वामी का समय ईसा से ५वी शताब्दी के पश्चात् तो जैनधर्म का प्रभाव राजपूत राजानो के पूर्व माना जाता है। इस प्रकार ये बुद्ध के समकालीन शासन-काल मे बहुत अधिक हो गया। यद्यपि वे राजा थे। इनके (महावीर) समय मे वैदिक कर्मकाण्ड का प्रारम्भ मे वैष्णव तथा शेवधर्म के अनुयायी थे, तथापि प्रचार प्रत्यधिक था। इससे समाज जर्जग्ति हो चुका उन्होने जैनधर्म का आदर किया। इसका कारण हेमथा। कर्मकाण्ड की पालोचना करते हए महावीर स्वामी चन्द्र ग्रादि जैनियों के व्यक्तित्व का प्रभाव भी था। जैन ने प्राचार धर्म को प्रधानता दी। संयम से रहना, धर्म के अनुयायियों का राजघरानो में बहुत सम्मान था। बिना अधिकार कोई वस्तु ग्रहण न करना, मन, वचन यही नही वे बहुत अच्छे पदो पर पासीन भी थे। पृथ्वीऔर कर्म से किसी प्राणी को कष्ट न देना, सदाचार- राज चौहान के शासनकाल में जैनियों के अनेक मन्दिर
न करना. यज्ञ करना. अहिंसा, सत्य अस्तेय अपरि- बनवाये गये। उस काल के बने हुए रणथम्भोर तथा ग्रह आदि जैन धर्म के मूल सिद्धान्त है। इनके लिए
अजमेर का पार्श्वनाथ का मन्दिर उल्लेखनीय है, जिन पर सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र पर बल
सोने के कलश सुशोभित थे। राजस्थान के वीर सेनानी दिया गया है।
महाराणा प्रताप ने तत्कालीन जैन सन्त हीरविजय को जैन समाज मुख्यतः दिगम्बर और श्वेताम्बर नामक
धर्मोपदेश देने के लिए मेवाडी भाषा मे सन् १५७८ को
एक पत्र लिखा था। गजस्थान का कोई राज्य ऐमा दो शाखानों में विभक्त है। यह विभाजन सम्भवत: जैन
नही है जहाँ जैन धर्म का प्रचार नहुमा हो, जैन मन्दिर मतियो को वस्त्रादि से सज्जित करने के विषय को लेकर
न बने हो और जैन कवियो द्वारा साहित्य न रचा हा है । श्वेताम्बर जैन अपनी मूर्तियों को वस्त्र पहनाने ।
गया हो। लगे और दिगम्बर जैन नग्न मूर्तियों की उपासना करने लगे। श्वेताम्बर साघु श्वेत वस्त्र धारण करते है और
जन धर्मावलम्बियो ने विपुल साहित्य की रचना दिगम्बर साधु वस्त्रहीन रहते है। डा० मित्तल के अनु
की। प्रारम्भ मे साहित्य-रचना तथा अध्ययन अध्यापन सार इस भेद का सूत्रपात जैन धर्म के मूल सिद्धात त्याग
का केन्द्र मन्दिर हया करते थे। उन मन्दिरो मे बैटकर और वैराग्य की सीमा का निर्धारण करने से हुअा जान
जो भी साहित्य विरचित किया गया, उसे वही सुरक्षित पडता है। कालान्तर मे श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्र
२. राजस्थान साहित्य का इतिहास--डा. पुरुषोत्तम दाय के अन्दर भी कई मत-मतान्तर हो गये जिन्हे स्था• लाल मेनारिया, पृ० १०४-५ । नकवासी, तेरहपंथी प्रादि कहा जाता है। मत-मतान्तरो ३. जैनिज्म इन राजस्थान-बाई के. सी. जैन, पेज १८ । १. व्रज के धार्मिक सम्प्रदायों का इतिहास-डा० प्रभु- ४. राजपूताने के जैनवीर-अयोध्याप्रसाद गोयलीय दयाल मीतल, पृ० ५२ ।
पृ० ३४१-४२।