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________________ १०६ वर्ष २४ ० ३ गाँवों में उनका विकास जैसा चाहिए वैसा न हो सका । संसार के परिणमनशील होने से प्रत्येक पदार्थ में प्रतिसमय परिणमन भी होता रहता है। सुख दुख, उत्थान थोर पतन की अवस्थाएँ प्रत्येक पदार्थ में होती है । समाज के कर्णधारों को चाहिए कि वे सामाजिक स्थिति का अध्ययन करें, उनमें संगठन और प्रेम भावना को विक सित करने का प्रयत्न करना चाहिए। समाज में अनेक ग्रन्थकार हुए होगे और वर्तमान में हैं । यहाँ गोलापूर्व समाज के कुछ ग्रन्थ और ग्रन्थारों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है प्रनेकान्स किया है और हरिषेण चक्रवर्ती का जीवन परिचय अकित करने वाले कई ग्रन्थ संस्कृत और अपभ्रंश भाषा मे पायें जाते है। प्रस्तुत हरिषेण कथा के कर्ता कवि शंकर है इसमे हरिषेण चक्रवर्ती के जीवन परिचय के साथ उनके पुत्र हरिवाहन का जीवन परिचय भी प्रकित हरिवाहन का कैलाश पर्वत पर दीक्षा लेने तथा तपश्चरण द्वारा ग्रात्म साधना करने का भी उल्लेख किया है। जो मूलसव सरस्वती गन्छ बलात्कारगण के विद्वान थे और भीमदेव पडित के पुत्र थे। इनकी जाति गोलापूर्व थी। कवि ने प्रथमे दो भट्टारको का नामोल्लेख किया है। प्रभाचन्द्र और रत्नकीर्ति । यह प्रभाचन्द्र दिल्ली पट्ट के विद्वान थे जो अजमेर के भट्टारक पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे और जिनका प्रतिष्ठोत्सव दिल्ली में हुमा था कथानक बडा सुन्दर और मन्मोहक है । ग्रंथ मे ७११ पद्म है किन्तु च्छक अपूर्ण जीणं पोर प्रशुद्धियों से भरा हुआ है। इसके संपादनार्थं दूसरी प्रति की श्रावश्यकता है। जिसका परिचय पहले दिया जा चुका है। कवि ने इस ग्रन्थ को वि० स० १५२६ भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा सोमवार के दिन पूरा किया है' । ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है । १. संवत् पन्द्रह सड़ हो गए, वरिस छत्रीस अधिक तह भए । भादयदि परिवा हसियार, दिखा पर तह प्रक्खिउ सार । अब यह कटवु संपूरण भयउ, सिरि हरिषेण संघ कह जयउ ।। सुखदेव - गोला पूर्व जाति के पचविसों में बिहारीदास के पुत्र थे। उनकी एक ही कृति 'वनिकप्रिया प्रकाश' है जिसका रचनाकाल सं० १७६७ है। पुस्तक मे व्यापार सम्बन्धी वस्तु के क्रय-विक्रय की शुभ-अशुभ बातों का समावेश किया गया है, जैसा कि निम्न पद्यो -से. प्रकट है ; वनिक प्रिया में शुभ अशुभ सबही दियो बताइ । जिहिं जैसी नोकी लगे तंसी कीजो जा ॥ ३२० संवत सत्रह सत्रह वरण संवत्सर के नाम । कवि करता सुखदेव कहि लेखक मायाराम ॥३२१ भourera पंचाशिका - यह आदिनाथ स्तोत्र ( मक्तामर स्तोत्र ) का पद्यानुवाद है, जो हिन्दी भाषा में किया गया है और जिस पर ग्वालिरी भाषा की पुट है । इसकी एक सचित्र प्रति, जो सं० १६६५ की लिखी हुई है श्वे० मुनि कान्तिसागर के पास थी प्रति जीर्णशीर्ण है। मुनि जी ने लिखा है कि "यह दुर्लभ अनुवाद है, जिसकी यह एक मात्र प्रति उपलब्ध हो सकी है। इसका समुल्लेख अद्यावधि प्रकाशित किसी भी हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास में नहीं हुमा मनुवाद बहुत ही मधुर और ग्वालिरी भाषा के प्रभाव को लिए हुए है।" जितना महत्व इस कृति का धार्मिक दृष्टि से है उससे कहीं अधिक भाषा की दृष्टि से है । ग्वालियर मंडल की भाषा के मुख को उज्ज्वल करने २] दोहा-गोमा पूग्य पचवि वारि विहारीदास तिनके सुन सुखदेव कहि वनिकप्रिया प्रकाश ॥२ वनिवनि को यनिक प्रिया भसारिका हेत । आदि ग्रन्त श्रोता सुनो मनो मत्र सौ देत ॥३ माह मांस कातक करें, सेवतु सोधे साठ । मते याह के जो चले कबहू न प्रावे घाट ॥४ ३. "धनुदास हू सो देव से निरु कजारं कही भव्यानन्द स्तुति पश्चाशिका का नाम है ।। ४६ ४. इस हिन्दी पद्यानुवादकी एक सचित्र प्रति ऐनक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन व्यावर में मौजूद है । जिसका भाषा पद्यानुवाद सम्मति सन्देश वर्ष ११ अक दो-तीन में छप चुका है ।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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