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________________ शिलालेखों में गोला पूर्वान्वय वाली अधिकतर रचनाएं जैनोंकी देन हैं। अनुवाद की भाषा पर दृष्टि केंद्रित करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि धनराज या घनुदास ने मंडलीय भाषा का प्रयोग करते समय बहुत सावधानी से काम लिया है। इसका शब्द चमन अद्भुत है। क्या मजाल है कि कठिन शब्द प्रा जाय। इसमें कोई सन्देह नही कि कवि को सस्कृत और तात्कालिक मडलीय भाषा पर अच्छा अधिकार था । भावों के व्यक्त करने मे कही भी थिय नही आने दिया है। १०७ उनका नाम प्रसिसेन या खड्गसेन था । ग्रन्थ में प्रसिसेम नाम से उल्लेख किया गया है। भव्यानन्द पचाशिका के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है कि कवि ने भक्तामर स्तोत्र के एक-एक पद्य का एकएक दिन मे अनुवाद किया है। ""एक-एक को कवि धनराज या घनुदास ने अपना उक्त हिन्दी पद्यानुवाद संवत १६७० मे श्योपुर में पूर्ण किया था। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है। : एकु एकु वासर में एकु-एकु नितकी । द्वय कर जोरि धनराज कहै सानि सौं, प्रसाधु समुद्ध कीज? जानि मन हित सौ ॥ अडतालीस पद्य तो मूल भक्तामर स्तोत्र के पद्यानुवाद के है और अन्त के दो पद्यों में अपने विषय मे स्वल्प संकेत किया है। जिससे जान पड़ता है कि कवि के पिता का नाम 'राजनंद' था और वह ग्वालियर मंडलान्तर्गत स्योपुर (शिवपुरी) के निवासी थे। उनकी जाति गोलापूर्व थी । धनराज या धनदास का परिवार संस्कृत साहित्य में रुचि रखता था । खड्गसेन ने लिखा है कि धनराज के पाँच भाई थे, जिनके नाम गोपान, साहिब, हमराज यादि हैं। उन सब में धनराज कवि धीर और अनेक गुणो का झाकरथा । ("तेषा मध्ये कविर्धीरः धनराजो गुणालयः ") प्रस्तुत खड्गसेन (सिंग) धनराज के पितृव्य श्री जिनदास का पुत्र था - "जिनदाससुतोऽसिसेनः) । असिसेन संस्कृत भाषा का अच्छा विद्वान था। उसने भक्तामर स्तोत्र के एक-एक पद्य पर पन्द्रह-पन्द्रह पद्यों की जयमाला जिली है। भक्तामर स्तोत्र जयमाला- इसमे भक्तामर स्तोत्र के एक-एक पद्य का अनुवाद १५-१५ पद्यो में किया गया है। अनुवाद बड़ा ही सुन्दर और सग्स है । कवि का संस्कृत भाषा पर पूरा अधिकार था। कवि की जाति गोलापूर्व है और वह घनराज के पितृव्य जिनदास के पुत्र थे । "सवतु नवसे सात सात पर सुन् घोर, पउष सिता तू गुरती- कीयो ऋत को । स्योपुर थानक विराजं राजनन्द धनुदास, ताको मन भयो भfव शिवामृत को ।" असिसेन ने संस्कृत पद्यों की जयमाला कब बनाई, उसका समय ज्ञात नही हुआ । अनुवाद हो चुकने के २४ वर्ष वाद सं० १६६४ मे मनोहरदास कायस्थ द्वारा प्रति मे ५० चित्र बनाये गये है । जिनमे ४८ चित्र तो ४८ काव्यो के है । चित्र कला की दृष्टि से स्योपुर के इतिहास मे - ग्वालियर मंडल के चित्र कम महत्व के नही है । यद्यपि ये चित्र शैली मुगल शाहजहाँ के समकालीन है। चित्र पूरे पत्र पर है। मध्य मे जहाँ कही भी स्वरूप स्थान मिला, भक्तामर के मूल पद्म दिये हैं और अधोभाग मे धनराजकृत अनुवाद दिया है। प्रथम चित्र में ऊपर के भाग मे मानतुगाचार्य एक चौकी पर विराजमान है जिनके सम्मुख कमण्डल अवस्थित है, पृष्ठभाग मे 'यह मानतुगाचार्य' शब्द प्रति है माचार्य करबद्ध प्रार्थना की मुद्रा मे भगवान ऋषभदेव की स्तुति कर रहे है। सामने ही उनकी खड्गासनस्थ नग्न प्रतिकृति कित है। चरणों मे भय और मुकुटधारी अमर मत मस्तक है। मध्य मे 'भक्तामर प्रणतमोलिमणि प्रभाणा' पद श्रालेखित है। ऋषभदेव के बाए हाथ के पास देवतानों के मस्तक मे घारित मुकुट की मणियों की प्रभा बिखर रही है। ऋषभदेव के चित्र के बायें भाग में चौगति का चित्रण है, ऊपर 'आलम्बनं' और निम्न भाग मे 'भवजले पतिताजनानां' प्रतिलिपित है। पत्र के नीचे भाग में 'दलित पापतमोवितान' लिखकर काले रंग से समुद्र बनाया गया है जिसमे एक मानवाकृति तैरती हुई बतलाई गई है । इस तरह चित्र में प्रथम पद्य का सम्पूर्ण भाव खूबी के
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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