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________________ अपभ्रंश भाषा के जैन-कवियों का भीति-वर्णन हा बालकृष्ण 'अकिंचन' एम. ए. पी-एच. 7. बैन मनिषियों ने अपने धर्म से सम्बन्धित भनेक नहीं। पुराणों, माख्यानों, कथानों, चरितों तथा चणिकामों की अपभ्रंश के जैन-कवियों द्वारा लिखित अधिकांश रचना की। यद्यपि ये सभी धर्म भावनामों से प्रोत-प्रोत काव्य-कृतियां प्रबन्धात्मक हैं। ये प्रबन्ध काव्य अपभ्रंश मानस की कृतियां हैं तो भी इनमे से अनेक का साहित्यिक साहित्य में प्रभूत मात्रा में प्राप्त हैं। चरित्र काव्यों की मूल्य भी कम नही । साहित्य-शास्त्रियो का एक ऐसा भी सख्या भी प्राशाजनक है। ये काव्य जैन तीर्थंकरों या वर्ग है जो धर्म से सम्बन्धित कृतियों को साहित्य के क्षेत्र धमा और धर्माचारियों के पुनीत जीवन से सम्बन्धित हैं । कुछ में रखने पर अापत्ति प्रगट करता है, किन्तु प्राज उस प्रमुख कृतियो की नीति पर यहाँ सक्षेप में विचार किया जावेगामान्यता को महत्व नही दिया जाता । कारण, साहित्य का धर्म से वैर नही है । अावश्यकता इस बात की है, कृति मे पउम चरिउ-इसे स्वयभू कृत रामायण कहना काव्यात्मकता होनी चाहिए। काव्य क्या है-रमणीय चाहिए । इसके अनेक वर्णन नैतिक दृष्टि से बहुत उपयोगी अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द । अतः जहाँ किसी है । उनका अनुशीलन बहुत विस्तार की अपेक्षा रखता भी प्रकार की शब्दगत, अर्थगत, भावगत, भाषागत, शैली है और एक पृथक विषय है। अतः यहाँ केवल उदाहरणार्थ गत, शिल्पगत रमणीयता विद्यमान हो, वही काव्यत्व एक कथन दृष्टव्य है:माना जा सकता है। धार्मिक कृतिया तो क्या, भ्रष्ट लक्खवण कहिं वि गवेसहि तं जल । कापालिको की कृतियां (या उनके कुछ प्रश) भी काव्य सज्जण हियउ जेम जं निम्मल ।। की श्रेणी मे पा सकते है बशर्ते कि उनमे काव्यत्व अर्थात् लक्षमण उसी जलाशय मे तो जल खोजते हैं विद्यमान हो। यदि धर्म के नाम पर ही किसी कृति को जो सज्जन हृदय के समान निर्मल हो। कथन की नैतिक काव्य सीमा से बाहर की वस्तु समझा जाने लगा तो अर्हता तो है ही, साथ ही उसकी मार्मिकता दर्शनीय है। पद्मावत तथा प्रखरावटादि समस्त सूफी काव्य, मानस अपने विषय से न हटता हुग्रा भी जिस प्रकार से संत सूरसागर-रासपंचाध्यायी प्रादि अधिकाश भक्ति काव्य की हृदय की निर्मलता का सकेत कर वह उसकी काव्य-कुशसिरमौर कृतियां हमें काव्य क्षेत्र से बाहर समझनी होंगी र लता एव अभिरुचि, दोनो की परिचायक है। और यदि ऐसा हो गया तो हिन्दी के पास लड़कियों की रिट्ठणेमि चरिउ या हरिवंश पुराण-यह ग्रन्थ पउम कुछ अदानों तथा विहरणियो के कुछ प्रांसुप्रो से सुसिकत चरिउ से भी बड़ा है । कही-कही नीति सम्बन्धी सूक्तियां छन्दों को छोड़कर और कुछ शेष ही नही रह जाएगा। बहुशः विद्यमान है :जब हम अन्य वैष्णव धर्म-ग्रन्थों को काव्य कहते है तो वरि सुसह समनु बरि मरो जमेह । हमें अपभ्रश के अनेक सरस तथा अलकृत जैन ग्रन्थों को ण वि सुव्वण्ड भासिय अण्णहा हवेह ।। भी काव्य कहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा और फिर अर्थात् चाहे समुद्र सूखे, मदर झुके (या कुछ भी हो) नीति काव्य के विद्यार्थी को जितना फुटकर मसाला किन्तु ज्ञानी का कथन अन्यथा नहीं सिद्ध होता है। तथा धार्मिक काव्यों से मिलने की माशा रहती है, उतना जहिं पह दुच्चरिउ समायरहप्रेम, श्रृंगार और विरह निरूपित करनेवाली कृतियोंसे तहि तणु सामग्ण काई करह। अर्थात
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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