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ब्रह्म साधारण कृत दुद्धारसि कथा
डा० भागचन्द जी जैन
ब्रह्म साधारण मूलसंघ की परम्परा के विद्वान थे । उन्होंने अपनी गुरु परम्परा के विद्वानो में पद्मनन्दी, हरिभूषण भट्टारक के शिष्य भ० नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। प्रस्तुत नरेन्द्रकीति बागड़संघ के विद्वान जान पडते है । इनके शिष्य प्रतापकीर्ति ने 'श्रावक रास' सं. १५१४ मे मगशिर शुक्ला दशमी के दिन बनाकर समाप्त किया । था । इस दुद्धारसि कथा में ब्रह्म साधारण ने भ० प्रभाचन्द का भी उल्लेख किया है । और यह बतलाया है कि जिस तरह इन्द्रभूति गौतम ने श्रेणिक (बिम्बसार ) के प्रति कथा कही, वैसी मै भी कहता हूँ । कथा मे कवि ने रचना काल और रचना स्थल का कोई उल्लेख नही किया हाँ, जिस गुच्छक मे यह कथा दी है, उसका लिपि काल जहिं सावय पर जिणधम्मरत । स० १५०८ जरूर दिया है। जिससे यह कथा सं० १५०८ के पूर्व रची गई है, बाद में नही। इससे इसका रचना काल स० १५०० के लगभग होना चाहिए ।
इह
कयमित्ति भावमिच्छत्तचत्त ॥ जहिं जीवदयावर सव्वलोय ।
बहुरिति मार्णिय सुभोय ॥ जिणजत्त करण उच्छाहचित्त ।
दत्त नाम के वणिक ने मुनि से पूछा कि हमारी यह व्याधि कैसे दूर होगी ? तब मुनि ने कहा कि नरक उतारी विधि करो, उससे तुम्हारा यह रोग चला जायगा । धनदत्तने जहि राय रायमइ भोयचत्तु । पूछा, भगवन् ! इसकी विधि क्या है ? तब मुनि ने कहा कि भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को यह व्रत करना चाहिए । और जिनेन्द्र की प्रतिमा का अभिषेक, पूजन और धार्मिक कार्यों में समय व्यतीत करना चाहिए। इस तरह यह व्रत बारह वर्ष तक करना चाहिए। व्रत पूरा होने पर विधि पूर्वक उसका उद्यापन करना चाहिए, चार सघ को दान देना चाहिये । इस तरह इस व्रत का विधि पूर्वक अनुष्ठान करने से धनदत्त का सब रोग चला गया । जिणसिद्ध भडार हो, तिहुश्रणसार हो,
रियो पुणु उज्भय हो । वंदे विमुदिहो, कुवलयचंदहो,
दुद्वारसि पयडमि जण हो । जिणवयणकमलरुह दिव्ववाणि ।
पणमामि जगत्तय पुज्ज जाणि ॥ णिग्गंथ सवण नियमणि धरेवि ।
'पहचद' भडारहो थुइ करेवि ।। 'दुद्धारसि' कह फलु सावयाह ।
जह गोयम भासिउ सेणियाह ॥ तह भासभि जइ हउं मंद बुद्धि ।
सरसइ हि पसाए कव्वसुद्धि || महुं संज्जउ जिणवरय याह ।
मिच्छामयमोह विवज्जियाह ॥ भरहखेत्त सुदरपएस | भवियणमणहर 'सोरट्ठदेस' ॥
जहि सावय गच्छहि पवरवित्त ॥
करुणारु जावउ जिणु विरत्तु ।। जहु कुल 'हसास' सुविसुद्धभाउ ।
दिक्खकिउ केवल णाणु जाउ ॥ दधम्मु पयासिवि मोक्खपत्तु ।
तहि तित्थु पयउ जाउ पवित्तु ॥ धत्ता - गिरणारु मणोहरु,
गुणियसुहरु, जिणचेईहरमंडियउ ॥ सुर- खयर - णमसिउ, जणहि
पसंसिउ, अरिवग्गेहि श्रखंडियउ ||
तहिं 'पउम पहु' णरवइ पसिद्धु ।
पय पालणु वहु गुणगण समिद्धि ||
'पोमावइ' मणहरु लच्छिसामि ।
जसु कित्ति पयउ पुरणयरगामि ॥