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चन्द्रवा का इतिहास
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को संभरीराय के पुत्र थे। अतः सिद्ध है कि उस समय कवि धनपाल ने अपनी ग्रंथ प्रशस्ति में सं० १४५४ भी उक्त नगर समृद्ध और सुन्दर था। तथा ऊँची-ऊँची से पूर्व के इतिवृत्त का भी कुछ उल्लेख किया है। और भट्टालिकामों से सुशोभित था। तथा साहू वासाघर मंत्री चन्द्र वाड के निम्न चौहान वंशी राजामों का उल्लेख पद पर प्रतिष्ठिन थे, जो लब कचुक कुल (लमेचू वश) किया है, जिनकी संख्या ५ है। सभरीराय, सारंग नरेन्द्र, के थे और सोमदेव श्रेष्ठी के सात पुत्रों में से एक थे। अभयचन्द्र और इनके पुत्र जयचन्द, रामचन्द्र । रामचन्द्र उन्ही की प्रेरणा और अाग्रह से कवि ने उक्त प्रथ की के पुत्र प्रतापरुद्र । इनमें प्रारभ के तीन नामों का अच्छा रचना की थी। कवि धनपाल ने साहु वासावर का परि- परिचय ज्ञात नहीं होता, अन्वेषण करने पर उस समय के चय देते हुए उन्हे सम्यक्त्वी, जिन चरणों का भक्त, साहित्य मे मिल सकता है पर वह मेरे देखने में नहीं पाया। जैनधर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, विक्रम सवत् १४५४ मे अभयचन्द्र के प्रथम पुत्र जयमिथ्यात्व रहित और विशुद्ध चित्त वाला बतलाया है। चन्द्र के राज-काज करने का उल्लेख अवश्य उपलब्ध साथ ही प्रावश्यक दैनिक देव-पूजादि षट्कर्मों में प्रवीण, हना है । अवशिष्ट पूर्ववर्ती तीन राजापो का राज्यकाल राजनीति मे चतुर और अष्ट मूलगुणो के पालन मे तत्पर यदि ६० वर्ष मान लिया जाय, जो अधिक नहीं है तो भी प्रकट किया है। वासाधर ने भी चन्द्रवाड मे एक जैन इनकी सीमा १३७५ या १४०० के पास-पास होगी। मन्दिर बनवाया था, और उसकी प्रतिष्ठा भी की थी। तब सं० १३७५ से १४२५ तक किन का राज्य रहा, यह इनकी पत्नी का नाम 'उदयकी' था, जो पतिव्रता और विचारणीय है। सभरीराय से पूर्व किसका राज्य था यह शीलव्रत का पालन करने वाली थी, तथा चतुर्विध सघ भी चिन्तनीय है। इस सम्बन्ध मे अन्वेषण करने की के लिए कल्पनिधि थी। इनके पाठ पुत्र थे-जसपाल, पावश्यकता है जिससे स० १३१३ से १४५४ तक की रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुण्यपाल, बाहड़ और रूप- शृखला का सामजस्य ठीक बैठ जाय।। देव । ये पाठों ही पूत्र अपने पिता के समान ही योग्य, सवत् १४५४ मे चन्द्रबाड मे निमित होने वाले चतर और धर्मात्मा थे। वासाघर के पिता सोमदेव श्रेष्ठी ग्रन्थ में कवि ने जिन राजाम्रो का उल्लेख किया था वह भी अभय चन्द्र और उनके पुत्र जयचन्द के समय मंत्री ऊपर दिया जा चुका है। हाँ सेठ का कूचा दिल्ली के बडे पद पर पासीन रह चुके थे। यद्यपि सोमदेव यदुनशी थे मन्दिर में स्थित एक चौबीसी धातु की मूर्ति के उल्लेख से परन्त उनका कुल 'जम्ब कंचुक' (लमेच) था। क्योकि ज्ञात होता है कि उस समय अभयचन्द के प्रमा जंन साहित्य सदन दिल्ली की प्रति में उनके पुत्र को चन्द्र का राज्य था। उसके राज्य शासनकाल मे ही उक्त लमेच' लिखा है, जैसा कि ग्रन्थ की चौथी संधि के निम्न मूति की प्रतिष्ठा की गई थी। इसमें स्पष्ट है कि प्रभयपद्य से जान पडना है :
१२. सर्थयसे वोऽस्तु गुगादिदेवः, मुरामुरे निर्मित पादसेवः । श्री लम्ब केंचुकुल पविकासभानः,
यस्या बभातीतिसगेहाली सोमात्मजो दुरितदारु चयकृशानुः ।
भगावलीवास्य सरोजलुब्धा ।।१।। धर्मक साधनपरो भुविभव्य बन्धु
स० १४५४ वर्ष वैशाख सुदि १२ सोम दिने श्री साधरो विजयते गुणरत्नसिन्धुः ।।
चन्द्र पाटदुर्गे चाहुवाणराज्ये श्रोप्रभयचन्द्रदेव सुपुत्र -बाहुबलि चरित संधि ४.
श्री जयचन्द्र देव राज्ये श्री काष्ठासघे माथुरा११. जिणणाह चरणभत्तो जिणधम्म परोदया लोए। स्वये प्राचार्य श्री अनन्तकीर्तिदेवास्तत्पट्ट क्षेमकीर्ति सिरि सोमदेव तणमो गंदउ वासद्धरो णिच्च ॥
देवा पद्मावती पौरपाटान्वये साधु माहण पुत्र सा० सम्मत्त जुत्तो जिणपायभत्तो दयालुरत्तो नहुलोयमित्तो। देवराज भार्या पमा, पुत्राः पच-करमसीह, नरसीह, मिच्छत्त चत्तो सुविसुद्धचित्तो
हरिसिंह, वीरसिंह, रामसिंह एतः कर्मक्षयार्थ चतुवासाघरो गंदउ पुण्णचित्तो।।
विशतिका प्रतिष्ठाकारितः पडित मारु शुभ भवतु । -बाहुबली चरित्र सं०३
(कूचा सेठ दिल्ली बड़ा मन्दिर