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१९०, वर्ष २४, कि०५
मोकान्त
चन्द्र का राज्य उससे पहले रहा है, पर वह कब से कब प्रलय काल के समान था, गुणग्राही भतुलित साहस पोर तक रहा है यह अभी विचारणीय है। द्वितीय बन्द का राज्य उससे बाद में हुमा जान पड़ता है। उसी समय योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल क्योंकि विक्रम संवत् १४६८ में उनका राज्य विद्यमान था। वंशी साहु तोसर के चार पत्रों में से प्रथम पुत्र साह उक्त संवत् में ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या शुक्रवार के दिन नेमिदास ने वहाँ व्यापार करके बहुत द्रव्य प्रजित किया चन्द्रवाह नगर में रामचन्द्र देव के राज्यकाल में भट्टारक था। तथा जिन भक्ति वश विद्रुम (मुंगा) रत्नों पोर प्रमरकीति का षटकर्मोपदेश नाम का ग्रंथ लिखा गया पाषाण प्रादि की अनेक मूर्तियों का निर्माण कराकर या, और जिसे चन्द्रवार के निवासी साहू जगसीह के प्रतिष्ठित किया था और वहाँ जिनमन्दिर वनवाया था। प्रथम पुत्र उदयसिंह के ज्येष्ठ पत्र देल्हा के द्वितीय पुत्र यह उस समय चन्द्र वाड के राजा प्रतापरुद्र द्वारा सम्माअर्जन ने अपने ज्ञानावरणी कर्म के क्षयार्थ लिखवाया नित थे। साहू नेमिदास श्रावक व्रतो के अनुष्ठाता, था"। और मूलसघी गोलाराडान्वयी पण्डित भसवाल के शास्त्रस्वाध्याय, पात्रदान और परोपकार प्रादि सत्कार्यों पुत्र विद्याधर ने लिखा था।
में प्रवृत्ति करते थे। उनका चित्त उदार था, और लोक कविवर रइधु ने 'पुण्णासव कहाकोस" की रचना में उनकी धार्मिकता और सुजनता का सहज ही प्राभास अपभ्रश भाषा में की है। जिसमें सम्यक्त्वांपादक एवं हो जाता है। कवि रइधूने साह नेमिदास का जयघोष करते पुण्यवर्धक कथानो की सृष्टि की गई है। कथाएँ बड़ी हुए उनकी मगल कामना की है। इन्ही साहु नमिदास रोचक है। इस ग्रंथ की प्रशस्ति मे कवि ने चन्द्रबाड का के अनुरोध से कवि रइधू ने उक्त 'पुण्यास्रव कथाकोष' वर्णन करते हुए लिखा है कि-'चन्द्रबाड पट्टन कालिदी की रचना की थी। ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की १५वी (यमुना) नदी से चारो तरफ घिरा हा है। फिर भी शताब्दी का अन्तिम चरण जान पड़ता है। वह धन-कन-कंचन और श्री से समृद्ध है। वहाँ चौहान- १४. बहु-विह-धाउ-फलिह विददम-मउ, वंशी राजा रामचन्द्र ने अपना राज्यभार अपने ज्येष्ठ कारावेप्पिणु अगणि। पडिमउ । पुत्र प्रतापरुद्र को दे दिया। प्रतापरुद्र एक वीर पराक्रमी पतिट्ठाविवि सुहु प्राविज्ज उ, शासक था। धीर रूपवान, गंभीर, राजनीति में चतुर सिरि तित्थेसर गोत ममज्जि उ । पौर युद्ध करने में कुशल था। उसने अपनी तलवार से
जि गह-लग्ग सिहरु चेईहरु, अनेक शत्रयों को विजित किया था। वह शवों के लिए पणु णिम्माविय ममिकर-पह हरू । १३. अथ सवत्सरे १४६८ वर्षे ज्येष्ठ कृष्ण पचदश्या
मिदास णामे सघाहिउ, शुक्रवासरे श्रीमच्चन्द्रपाटन गरे महाराजाधिराज
जंजिण संघभार णिवाहिउ ।। रामचन्द्रदेव राज्ये तत्र श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये श्री
-जैन ग्रथ प्रशस्ति सग्रह भा० २ पृ० १०० मूलसंधे गूजर (गुजर) गोष्ठि तिहुयणगिग्यिा साहु १५. णिव पयावरुदद सम्माणि उ । जगसीहा भार्या सोमा तयोः पत्रा: [चत्वारा.] प्रथम
-पण्यासव कथाकोश प्रशस्ति पुत्र उदेसीह भार्या रतो, [द्वितीय ] असीह तृतीय १६. "प्रताप रुद्र नृपराज विश्रुतपहराज चतुर्थ खाम्हदेव । ज्येष्ठ पत्र उदेसीह भार्या स्त्रिकालदेवार्चन धिता शुभा। रतो त्रयाः पुत्रा: ज्येष्ठ पत्र देल्हा, द्वितीय सम, जेनोक्तशास्त्रामृतपान शुद्धधी: तृतीय भीखम । ज्येष्ठ पत्र देल्हा भार्या हिरो (तयोः) चिरं क्षितो नन्दतु नेमिदासः ॥३॥" पुत्रा द्वयो: ज्येष्ठ पुत्र हाल, द्वितीय अर्जुन ज्ञाना. "सत्कवि गुणानुरागी श्रयान्निव पात्रदान विधिदक्षः। वरणा कम क्षयार्थ इद षट् कमोपदेश लिखापितं ।" तोसउ कुल नभचन्द्रो नन्दतु नित्यमेव नेमिदासाख्या।।"
-नागौर शास्त्र भंडार -जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ प्रस्तावना पृ० १०१