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________________ १७०, वर्ष २४, कि०४ अनेकान्त स्थित था। उस मन्धकार भर रात में देवो ने रत्न दीप बाद भी आज तक प्रचलित है। और उसका प्रयोग भूतसजोये और मनुष्यो ने दीपावली जलाई। किन्तु भगवान काल में साहित्य, शिलाभों और मूर्तियों आदि के लेखो मे का निर्माण चूंकि प्रत्यूष काल में हुआ था, अतः जनता स्वतत्रता के साथ किया जाता रहा है। ने अमावस्या की रात में दीपावली जला कर निर्वाण- दीपावली पर पश-पक्षियो, देवी-देवताओं, मनुष्यमहोत्सव मनाया । उसी की स्मृति सुरक्षित रखने के लिए स्त्रियों के मिट्री और चीनी के खिलौने बनाये जाते है। प्रतिवर्ष उनके भक्त जन पावापुरी में प्राकर और जो स्त्रियाँ दीवालो पर. अाँगन मे अथवा द्वार पर चित्रकारी वहाँ नही पा सकते वे अपने अपने घरो में दीपावली का करती है। मिट्टी की हटरियाँ बनाई जाती है, ये सब करती अर्थात् निर्वाण कल्याणक का उत्सव मनाते थे । चतुर्दशी अपने में भगवान के निर्वाण से पूर्व की समवसरण सभा को छोटी दीपावली और अमावस्या को बड़ी दीपावली में और निर्वाण के अवसर पर एकत्रित हुए देवी-देवताओ, मनाने का कारण वही है जो ऊपर लिखा जा पशु-पक्षियो और नर-नारियो की स्मति मुरक्षित रक्खे __जैनधर्म में अध्यात्म की प्रधानता है। प्रात्मा की उस काल में भगवान ने प्रात्म-शद्धि की और सम्पूर्ण जन्म-मरण से मुक्ति हो आत्मा का सबसे बड़ा काम्य है, कर्म-मल को दूर करके आत्मा की प्रात्यन्तिक निर्मलता वही साध्य है । जिन्होने इस काम्य और साध्य की सिद्धि प्राप्त की। इसी प्रकार गौतम गणधर ने घातिया कर्मों कर ली है, वे ससारी जनों के लिए प्रात्मकल्याण के मार्ग का विनाश करके जो प्रात्म-शोधन किया, उससे उनकी में प्रेरक स्रोत रहे है। उनकी स्मृति और पूजा का उद्देश्य प्रात्मा अनन्त ज्ञान के प्रकाश से जगमगा उठी। किन्तु कोई ऐहिक कामना नहीं है, अपितु प्रात्म-कल्याण की जिनकी दृष्टि मे बहिर्मुखता है, उन्होने इन घटनामो की प्रेरणा प्राप्त करना है। यह भी एक सयोग ही था कि प्रमा स्मृति तो सुरक्षित रक्खी, किन्तु उसको रूप दिया वस्या के प्रारम्भ से कुछ पूर्व भगवान को निर्वाण प्राप्त भौतिक । अतः बाहरी सफाई, शुद्धि होने लगी, दीपावली हा और उसी दिन उनके मुख्य गणघर इन्द्र ___ जलने लगी। उन अवसगे पर उपस्थित प्राणियो के प्रतिभूति गौतम को केवलज्ञान प्राप्त हुग्रा । निर्वाण और रूप खिलौने बनने लगे। धीरे-धीरे इस आध्यादिमक घटना ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है। अतः ऐसा भी पर भौतिकता का मुलम्मा चढने लगा । आत्मा की प्रात्यविश्वास किया जाता है कि प्रात्मा की अन्तरंग ज्योति न्तिक मुक्ति और प्रात्यन्तिक ज्ञान की प्राप्ति से व दोनो का प्रतीकात्मक बहिरंग प्रदर्शन दीपकों के प्रकाश से किया गया था। दोपकों की प्रावलियाँ जलाई गई। प्रात्मा श्रीसम्पन्न हुई थी, उससे हमारे मन में उनके प्रति अतः इस धामिक दिवस का नाम ही दीपावली' पड़ श्रद्धा तो प्रकुरित हुई किन्तु भौतिक दृष्टि के कारण हमने उस श्री को भौतिक लक्ष्मी बना दिया और हम उस गया। लक्ष्मी और गणनायक या गणेश की उपासना-पूजा करने इस महत्वपूर्ण धार्मिक घटना की स्मृति सुरक्षित लगे, जिनका हमारे प्राध्यात्मिक जीवन में कोई स्थान रखने के लिए जनता ने दो कार्य किये-प्रथम तो इस नही है। किन्तु हमे यह बात अत्यन्त कृतज्ञता के साथ दिन प्रतिवर्ष दीपावली (छोटी दिवाली और बडी स्वीकार करनी होगी कि भगवान महावीर के निर्वाणोदिवाली) मनाने लगी। दूसरे उस दिन से नया सवत् त्सव की स्मृति में ही 'दीपावली' पर्व प्रचलित हुआ और मनाने लगी। ऐतिहासिक महापुरुषो मे महावीर के नाम पर जो निर्वाण सवत् प्रचलित हुघा, उससे प्राचीन कोई प्राज वह प्रान्त, भाषा, जाति और वर्ण के भेद के बिना सारे भारत का राष्ट्रीय पर्व या त्योहार माना जाता है। अन्य सवत् नही है। कलि-संवत् अथवा युधिष्ठिर संवत् । के बारे मे कुछ उल्लेख मिलते है। किन्तु उनका प्रचलन जिस स्थान पर भगवान का निर्वाण हुआ था, वहाँ नही रहा। किन्तु महावीर निर्वाण सवत ढाई हजार वर्ष प्रब एक विशाल सरोवर बना हुमा है। इस तालाब के
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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