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________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन श्रावक ज्ञप्ति में अन्य अन्य दर्शनो के ग्राह को काक्षा श्रावकप्रज्ञप्ति मे इस विचिकित्सा प्रतिचार का स्वका लक्षण बतलाया है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए रूप बतलाते हुए कहा है कि 'यह मेरा अर्थ सिद्ध होगा उसकी टंका में कहा गया है कि सुगतादि प्रणीत दर्शनों या नही' इस प्रकार सत् (समीचीन) अर्थ मे भी जो के विषय मे अभिलाषा करना, इसे काक्षा कहते हैं । यह बुद्धिभ्रम होता है उसका नाम विचिकित्सा है। टीका में सम्यक्त्व का दूसरा अतिचार है। उक्त कांक्षा देश व इसे स्पष्ट करते हुए वहाँ कहा गया है कि युक्ति और सर्व के भेद से दो प्रकार की है । सौगत (बौद्ध) दर्शन में प्रागम से सगत भी अर्थ मे जो फल के प्रति संमोह या , चित्तजय का प्रतिपादन किया गया है और वही चित्तजय भ्रान्त बुद्धि होती है वह विचिकित्सा कहलाती है। इस मुक्ति का प्रधान कारण होने से संगत है व दूरापेत- प्रकार भ्रान्ति को प्राप्त हुग्रा व्यक्ति विचार करता है अतिशय विरुद्ध-नही है। इस प्रकार विचार करते हुए कि बालके भक्षण के समान क्लेश को उत्पन्न करने वाल एक ही बौद्ध दर्शन की प्राकाक्षा करना, इसे देशकाक्षा इन कनकावली प्रादि तपों का फल भविष्य मे कुछ प्राप्त कहा जाता है। कपिल, कणाद और अक्षपादादि प्रणीत होगा या नहीं, क्योकि खेती मादि की क्रियाये फल वाली मव ही दर्शन अहिंसा के प्रतिपादक है। उनमें इस लोक- और फल से रहित दोनो ही प्रकार की देखी जाती है। सम्बन्धी क्लेश का प्रतिपादन सर्वथा नही किया गया है, प्रागे वहाँ विचिकित्सा को विद्वज्जुगुप्सा भी बतला कर इसी से वे उत्तम दर्शन है। ऐसा मानकर सभी दर्शनो की उसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो संसार के स्वभाव के इच्छा करना, यह सर्वकाक्षा कहलाती है। ज्ञाता व सर्व परिग्रह से रहित है ऐसे विद्वान् साधुनों की तत्त्वार्थभाष्य के उक्त कथन को स्पष्ट करते हुए निन्दा करना, यह विद्वज्जुगुप्सा है। जैसे-उनका शरीर उसको प्रा. हरिभद्र और सिद्धसेन गणि विरचित वृत्तियो मे स्नान न करने के कारण पसीने से मलिन और दुर्गन्ध से कहा गया है कि इस लोक सम्बन्धी विषय शब्दादिक है। युक्त रहता है । यदि वे प्रासुक जल से स्नान कर लिया * सुगत ने भिक्षुमो को स्नान, अन्न-पान, आच्छादन और करे तो कौनसा दोष है ? शयनीय आदि के सुखानुभव द्वारा क्लेशरहित धर्म का अन्य दृष्टिप्रशंसा-पाहत मत से भिन्न मत के उपदेश दिया है। वह भी घटित होता है, दूरापेत नहीं मानने वाले क्रियावादी, प्रक्रियावादी, प्रज्ञानिक और है । तथा परिव्राजक आदिको के उपदेशानुसार ऐहिक वनयिक मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना-ये बहुत पुण्यविपया का उपभोग करने वाले ही परलोक मे भी सुख शाली है, इनका जन्म सफल है। इत्यादि प्रकार से स्तुति से युक्त होते है । अतः यह धर्म का उपदेश बहुत ठीक करना, यह अन्यदृष्टिप्रशंसा नाम का सम्यग्दृष्टि का है। इसी प्रकार परलोक-स्वर्ग व मनुष्यादि जन्म अतिचार कहा शाता है। सम्बन्धी शब्दादि विषयो की अभिलाषा करना। श्रावकप्रज्ञप्ति मे इसका निर्देश 'परपाषण्डप्रशंसा' पक्षान्तर मे यहाँ अन्य-अन्य दर्शनों के ग्रहण या नाम से किया गया है । उसको स्पष्ट करते हुए वहां कहा उनकी अभिलाषा को भी कांक्षा अतिचार कहा गया है। "या ह' गया है कि शाक्य (रक्तभिक्ष) और परिव्राजक प्रादि कि तथा इसके लिए पागम का प्रमाण भी दिया गया है। ४. श्रा. प्र. टीका ८७. (लगभग यही अभिप्राय दशवविचिकित्सा-तत्त्वार्थभाष्य में विचिकित्सा के लक्षण कालिक नियुक्ति की टीका [१८२, पृ. १०२], श्रा. में कहा गया है कि 'यह भी है' इस प्रकार का जो बुद्धिभ्रम होता है उसे विचिकित्सा कहते है। पंचाशक चूणि [पृ. ४६-४७] और धर्मबिन्दु की टीका [२-११, पृ. १८-१९] में भी प्रगट किया गया है। १. श्रा.प्र. टीका ८७ ५. प्रन्यदृष्टिरित्यर्हच्छासनव्यतिरिक्तां दृष्टिमाह। सा २. दर्शनेषु वा, तथा चागमः-कखा अण्णण्णदंसणग्गा द्विधा-अभिगृहीता चानभिगृहीता च। तद्युक्तानां हो । त. भा. हरि. व सिद्ध. वृत्ति ७-१८. ३. विचिकित्सा नामेदमप्यस्तीति मतिविप्लुतिः । क्रियावादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकाना त. भाष्य ७-१८. च प्रशंसा-स्तवो सम्यग्दृष्ट रतिचार इति । त.मा.७-१८
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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