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________________ ३४, वष २४, कि.१ अनेकान्त और उसकी टीकामो में पूर्वोक्त २५ दोषो का उल्लेख जो शका होती है वह सर्वशका कहलाती है। देशशंका उपलब्ध नही होता। वहाँ केवल निःशंकित प्रादि पाठ और सर्वशका के दूसरे उदाह ण इस प्रकार भी उपलब्ध अंगों और इन पांच अतिचारो का ही उल्लेख किया गया होते है-जीवत्व के समान होने पर भी एक भव्य और है। वहाँ इन दोषों का अन्तर्भाब उन पांच प्रतिचारों में दूसरा प्रभव्य कैसे होता है? यह देशशका का उदाहरण समझना चाहिए । प्राचार्य कुन्दकुन्द विरचित दर्शन- है। सर्वशंका-प्राकृतनिबद्ध होने से यह सब ही परिप्राभूतादि प्रन्थों में भी उनका उल्लेख देखने में नहीं कल्पित होगा। इस प्रकार की शका करने वाला यह माता । पाठ अगों का उल्लेख समयप्राभूत' और चारित्र. विचार नही करता है कि कुछ पदार्थ हेतु ग्राह्य है और प्राभन' में भी दखा जाता है । शंकादि दोषों का मामान्य कुछ अहेतु ग्राह्य भी है। जीव के अस्तित्वादि हेतुग्राह्य है, निर्देश चारित्रप्राभूत में किया गया है। उक्त शकादि किन्तु भव्यत्व प्रादि हेतुग्राह्य नहीं है, क्योकि उनके जो दोषों का स्वरूप इस प्रकार है हेतु है वे हम जैसों की अपेक्षा प्रकृष्ट ज्ञान के विषयभूत १. शंका-तत्त्वार्थभाष्य में शंका के स्वरूप को हैं। प्राकृतनिबन्ध भी बाल ग्रादि के लिए साधारण है। बतलाते हुए कहा गया है कि जिसने जीवाजीवादि तत्त्वों कहा भी है -- बालक, स्त्री और मूर्ख तथा चारित्र की का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो भगवान महावीर के शासन इच्छा रखने वालों के अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञो द्वारा प्राकृतनिबन्ध को भावतः स्वीकार चुका है. तथा जिसकी बुद्धि परकीय स्वीकार किया गया है। मागम की प्रक्रिया से अपहृत नही है-अर्थात् जो अरहंत के योगशास्त्र के स्वो. विवरण मे मर्वांका का उदाहरण द्वारा प्रणीत तत्त्वों पर ही श्रद्धा रखता है, ऐसे सम्पग्दृष्टि यह दिया गया है-धर्म है अथवा नही है ? एक वस्तुजीव के भी केवलज्ञान और आगम से गम्य अतिशय सूक्ष्म प्रतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में 'ऐसा होगा कि नही' । धर्म को विषय करने वाली देशशंका का उदाहरण देते इस प्रकार का जो सन्देह होता है, उसे शका कहते है। हुए हुए कहा गया है कि जीव केवल सर्वगत है या असर्वगत, अथवा वह प्रदेश सहित है या प्रदेश रहित। इसमे सम्यक्त्व मलिन होता है । श्रावकप्रज्ञप्ति मे । २ काक्षा-तत्त्वार्थभाष्य मे इम लोक सम्बन्धी और इस को अतिचारिता को दिखलाते हुए कहा गया है कि परलोक सम्बन्धी विषयों की प्राकाक्षा को काक्षा नामक उा प्रकार की शंका से चूकि अन्तःकरण मे मलिनता सम्यग्दृष्टि का अतिचार बतलाया है । काक्षा के अतिचार उत्पन्न होती है और साथ ही जिन भगवान् के विषय मे प्रश्रद्धा भी होती है जो सम्यकत्व के योग्य नहीं है, होने का कारण यह बतलाया गया है कि विपयाभिलाषी अतएव इसे उसका अतिचार जानना चाहिए। चूंकि गुण-दोष के विचार मे शून्य होता है, अतः वह इस तत्त्वार्थवार्तिक में इन शंकादि अतिचारो के विषय में । प्रकार से-निषिद्ध के सेवन से-सिद्धान्त का उल्लघन करता है। यह कहा गया है कि उनका स्वरूप पूर्वोक्त निःशंकितादि के विपरीत समझना चाहिए। ७. श्रा. प्र. टीका ८७; पचाशक चूणि पृ. ४५. वह शका देशशंका और सर्वशका के भेद से दो प्रकार ८. दशवै. नि. हरि. वृत्ति १८२, पृ. १०१.२, धर्मबिन्दु की है । प्रात्मा क्या प्रसख्यातप्रदेशी है अथवा प्रदेशों से मुनि-टीका २-११, पृ. १८. रहित निरवयव है. इस प्रकार की देशविषयक शंका को ६. सर्व विषया अस्ति वा नास्ति वा धर्म इत्यादि । देशशका कहा जाता है। पोर समस्त अस्तिकायविषयक देशशङ्का एकैकवस्तुधर्मगोचरा । यथा-अस्ति १. स. सि. ६.२४ व त. वा. ६, २४, १. जीव केवलं सर्वगतोऽसर्वगतो वा सप्रदेशोऽप्रदेशो २. समयप्रा. २४६-५४. वेति । यो. शा. २-१७, पृ. १८६.८७. ३. चा. प्रा. ७. चा.प्रा.६. ५. श्रा. प्र. ८६. १०. ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वाशसा कांक्षा । निःशंकितादयो व्याख्याता दर्शनविशुद्धिरित्यत्र, सोऽतिचार: पम्यग्दृष्टेः । कुतः ? काक्षिता विचा. तत्पतिपक्षभूताः शंकादयो वेदितव्याः । त. बा. ७.२३ रितगुण-दोषः समयमतिकामति । त. भा. ७.१८. .
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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