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________________ सभ्यग्दर्शन : एक अध्ययन मूढतायें ३ दर्शन, मिथ्या ज्ञान, मिथ्या चारित्र और इन तीनों के १ लोकमूढता-लोकरूढ़ि के अनुसार नदी या समुद्र पाराधक; इन्हें भी अनायतन कहा जाता है। कहीं पर को पवित्र मानकर उसमें स्नान करने में, बालु व पत्थरो प्रसर्वज्ञ देव, असर्वज्ञ का आयतन, असर्वज्ञ का ज्ञान, प्रादि का ढेर करने मे, पर्वत से गिरने में और अग्नि प्रवेश प्रसर्वज्ञज्ञान सहित पुरुष, प्रसर्वज्ञानुष्ठान और प्रसर्वज्ञा(सती प्रादि की प्रथा) में धर्म मानना इत्यादि लोक- नुष्ठान सहित पुरुष ; इन्हें प्रनायतन माना गया है'। मूढता के अन्तर्गत हैं। पतिवार २ देवमूढता-प्रभीष्टप्राप्ति की इच्छा से राग-द्वेष शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा भो प्रादि से मलिन देवतानों-काली, दुर्गा, भवानी एवं अन्यदृष्टिसंस्तव; ये उक्त सम्यग्दर्शन के पांच प्रतिचार अन्य भूत-पिशाचादि की पाराधना करना; इसे देवमूढता है। प्रतिचार, प्रतिक्रम, व्यतिक्रम पोर स्खलन ये समझना चाहिए। समानार्थक शब्द हैं। अभिप्राय यह है कि व्रत का जो ३ गुरुमूढ़ता-प्रारम्भ व परिग्रह में आसक्त रहकर कुछ अंश में भंग हो जाना है अथवा उससे कुछ स्खलित हिंसादि में प्रवृत्त पूर्त साधुओं का आदर-सत्कार करना, होना है, उसे अतिचार जानना चाहिए। यह गुरुमूडता कही जाती है। उक्त शंकादि अतिचार यद्यपि पूर्वोक्त शंकादि दोषों पं. माशापर ने श्रावक को भी संयमविहीन माता- के अन्तर्गत हैं, फिर भी विशेष विवक्षा से उनका उल्लेख पिता, गुरु, राजा, वेषधारी साधु (तापस व पार्श्वस्थ कहीं-कहीं पर पृथक से भी किया गया है। तरवार्थसूत्र आदि) और कुदेवों (रुद्र प्रादि व शामन देवता) की का २. भ.मा विजयो. टी. ४४; अन. प. २.८४. वन्दना करने का निषेध करते हुए संयतों को तो उक्त । ३. षडनायतनानि मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि श्रीणि, माता-पितादि के साथ शास्त्रोपदेश के अधिकारी श्रावक त्रयश्च तद्वन्तः पुरुषाः । अथवा प्रसर्वज्ञ-प्रसर्वज्ञायतनकी भी वन्दना करने का निषेध किया है। प्रसर्वज्ञज्ञान - प्रसर्वज्ञज्ञानसमवेतपुरुषाऽसर्वज्ञानुष्ठाना मदद सर्वज्ञानुष्ठानसमवेतपुरुषलक्षणानि । प्रात्मानु. टीका ज्ञान प्रतिष्ठा, कुल (पितृवश), जाति (मातृवश), १०, पृ० ११; चा.प्रा. टीका ६. बल (शारीरिक शक्ति), धन-सम्पत्ति, अनशन प्रादि तप ४. त. सू. ७-२३, भ.पा. (४४) में मन्यदृष्टिसंस्तव और शरीर की सुन्दरता इन पाठ के प्राश्रय से जो के स्थान में 'अनायतनसेवना' को ग्रहण किया गया है। अभिमान हुप्रा करता है वह ज्ञान मद व प्रतिष्ठामद प्रादि ५. अतिचारो व्यतिक्रमः स्खलितमित्यनन्तरम् । त.भा. के भेद से पाठ प्रकार का मद माना जाता है। ७१५, दर्शन मोहोदयात्तत्वार्थश्रद्धानादतिचरणमती. शंका-कांक्षा प्रादि चार: अतिक्रम इत्यनर्थान्तरम् । त. वा. ७, २३, ३; निःशकित आदि पाठ अगों के लक्षण निर्दिष्ट किए प्रतिचा : व्रतशथिल्यम् ईषदसंयमसेवनं च। मूला. जा चुके हैं। उनके विरुद्ध क्रमश: शंका प्रादि के लक्षण चार वृत्ति ११.११. (आचार्य अभिवगतिने द्वात्रि. समझना चाहिए। शिका [6] में विषयो में वर्तन को प्रतिचार अनायतन ६ बतलाया है।) मायतन का अर्थ स्थान होता है । जो धर्म के प्राय ६. सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशमंजनम् । तन नहीं हैं, वे अनायतन कहलाते है। वे छह हैं -कुदेव, मंत्र-तंत्रप्रयोगाद्या: परेऽप्यूहास्तथाऽत्ययाः ।। कुगुरु, कुधर्म और इन तीनों के भक्त । अथवा मिथ्या सा. घ.४.१८ १. श्रावकेणापि पितरी गुरू राजाप्यसंयताः । ७. यथा-उपासकाध्ययन (१४६) में शंकादि भतिकुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्याः सोऽपि संयतः ॥ चारों का निर्देश किया गया है । इसी में प्रागे मन.प.-५२. (२४१) पच्चीस दोषों का भी निवेश किया गया है।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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