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________________ ३२, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त प्रभावना-जो स्वात्मोपलब्धिरूप ज्ञान-रथ पर चढ़ पुरुषार्थसिदधुपाय के निर्माता अमृतचन्द्र सूरि यद्यपि कर मनोरथ के वेगों को-राग-द्वेषादिरूप अनेक प्रकार आध्यात्मिक सत रहे है, पर उन्होने भी व्यवहार की के सकल्प-विकल्पों को नष्ट करता है उसे जिनज्ञान- उपेक्षा नहीं की है। यथास्थान उसको भी उन्होंने प्रधाप्रभावी सम्यग्दष्टि जानना चाहिए। रत्नकरण्डक के नता दी है। उनके द्वारा जो वे लक्षण किये गये है उनमे अनुसार जनमतविषयक अज्ञान को दूर करके उसके प्राय: प्रथमतः प्रात्मा को प्रधानता दी गई है और तत्पमाहात्म्य को प्रकाशित करना, यह प्रभावना का लक्षण है। श्चात् बाह्य को भी। अन्तिम उद्देश्य सबका यही रहा दशवकालिक नियुक्ति की हरिभद्र विरचित टीका में भी है कि ससारी प्राणी अपने प्रात्मस्वरूप को पहिचाने और लगभग ऐसा ही उसका लक्षण देखा जाता है। तत्त्वार्थ- फिर यथासम्भव पर की ओर से निर्ममत्व होकर उसे वातिक मे उसका लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया प्राप्त करने का प्रयत्न करे। है-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय के प्रभाव उक्त गुणों के अतिरिक्त सम्यक्त्व को मलिन करने से आत्मा को प्रकाशित करना, इसे प्रभावना कहते है। वाले कुछ दोष भी है, जिनसे बचकर उसे निर्मल रखा पुरुषार्थसिद्धयुपाय मे प्रात्मप्रभावना के साथ ही दान, जा सकता है। वे दोष २५ है जो इस प्रकार है-तीन तप, जिनपूजा और ज्ञान के अतिशय द्वारा जिनधर्म को मढता, पाठ मद, छह अनायतन और उक्त पाठ अगो के भी प्रभावित करना अभीष्ट रहा है। विपरीत पाठ शका आदि। इस प्रकार यहाँ जिन कुछ ग्रन्थों के आधार से उक्त रत्नकरण्डक में जो सम्यग्दर्शन का लक्षण निर्दिष्ट निःश कितादि अगो के लक्षण दिये गये है उनमे समय किया गया है उसमें इन दोपो को भी सूचना की गई है। प्राभृत एक अध्यात्मप्रधान ग्रन्थ है। कर्ममलीमस प्रात्मा कारण कि वहाँ जिस प्राप्तादि के श्रद्धान को सम्यग्दको शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति कराना, यह उसका एक ही र्शन बतलाया है उसे पाठ मगसहित तथा तीन मूढ़तामो लक्ष्य रहा है। यहाँ भेद को गौण रखकर अभेद की और पाठ मदों से रहित वतलाया है । यहाँ तीन मूढ़तामो प्रधानता से उक्त लक्षण किये गये है। निश्चयनय की और पाठ मदो का तो स्पष्टतया उल्लेख किया गया है । अपेक्षा ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा के अन्यत्र कही भी शका. साथ ही आठ अंगों के निर्देश से उनके विपरीत पाठ काक्षा प्रादि सम्भव नहीं है। दोषो की भी सूचना कर दी गई है । अब केवल छह शेष प्रन्य व्यवहारप्रधान है, अतः वहां अभेद को अनायतन रह जाते है सो आगे जाकर जहा सम्यग्दृष्टि गौण कर भेद की प्रधानता से उक्त लक्षण निर्दिष्ट किये के लिए भयादि के वश भी कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु गये है। हरिभद्र सूरि ने दशवकालिक नियुक्ति की टीका को प्रणाम एवं उनकी विनय करने का निषेध किया गया में गुण-गुणी के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त है वहाँ इन अनायतनो की भी सूचना कर दी गई निःशकितादिकों का यह पृथक-पृथक निर्देश गुण की समझना चाहिए। प्रधानता से गुण और गुणी में कथचित् भेद के ज्ञापनार्थ निर्देशो गुण-गुणिनोः कथंचिद् भेदख्यापनार्थः, एकान्तकिया गया है। सर्वथा उनमे अभेद मानने पर गुण के भेदे तन्निवृत्ती गुणिनोऽपि निवृत्तेः शून्यतापत्तिः । प्रभाव का प्रसग प्राप्त होता है, और तब वैसी अवस्था नि. १८२, पृ. १०३।२. मे गुण के बिना गुणी के भी प्रभाव का प्रसग प्राप्त होने ६. मूढत्रय मदाश्चाष्टो तथानायतनानि षट् । पर शून्यता को प्रापत्ति दुनिवार होगी। अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा: पविशतिः ।। उपासका. २४१. (प. पाशाधर ने इसे अनगार१. समयप्रा. २५४. धर्मामृत (२-१०३) को अपनी टीका में उद्धृत २. रत्नक. १८; दशवै. नि. ह. वृत्ति १८२, पृ. १०१.३. किया है) ३. त. वा. ६, २४, १. ४ पु. सि. ३०. ७. भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । ५. प्रकाराश्चोक्ता एव निःशङ्कितादयः । गुणप्रधानश्चायं प्रणाम विनयं चैव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ॥३०॥
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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