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सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन
कारणभूत सुख में विश्वास न करना-उसे हेय समझना, उपगृहन या उपबृहण-समयप्राभृत में कहा गया है इसे अनाकांक्षणा (निष्काक्षित) अग कहा गया है। कि जो सिद्धभक्ति से युक्त होकर समस्त धर्मों को
निविचिकित्सा-समयप्राभत में निविचिकित्सा का प्रात्मशक्तियों को बढ़ाता है अथवा मिथ्यात्व आदि लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि जो सभी धर्मों में विभाव भावों का प्राच्छादन करता है उसे उपग्रहनकारी
-विविध प्रकार के वस्तुस्वभावो के विषय में-घृणा सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। रत्नकरण्डक के अनुसार नही करता है उसे निविचिकित्स सम्यग्दृष्टि जानना स्वयं शुद्ध मोक्षमार्ग के विषय मे यदि अज्ञानी या प्रसचाहिए। रत्नकरण्डक में उसका लक्षण इस प्रकार मर्थ जनों के कारण निन्दा होती है तो उसे दूर करना, निर्दिष्ट किया गया है-शरीर यद्यपि स्वभाव से ही अप- इसका नाम उपग्रहन है"। वित्र है, फिर भी वह (मनुष्यशरीर) चूकि रत्नत्रय की तत्त्वार्थवातिक मे मार्दव आदि की भावना से प्रात्मप्राप्ति का कारण है, अत: उससे घृणा न करके गुणों के धर्म के बढाने को तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय में उसके साथ कारण जो तद्विषयक अनुराग होता है इसे निर्विचिकित्सा प्रग दसरों के दोषों के प्राच्छादित करने को भी उपबृ हण माना गया है। तत्त्वार्थवातिक मे उसके लक्षण को दिख- कहा गया है"। लाते हुए कहा गया है कि शरीर प्रादि के अपवित्र स्थितिकरण-जो कुमार्ग मे जाते हुए अपने को स्वभाव को जानकर वह पवित्र है' इस प्रकार की मिथ्या (आत्मा को) मोक्षमार्ग में स्थापित करता है उस सम्यरकल्पना न करना, अथवा 'यहां तपश्चरण प्रादिविषयक दष्टि को स्थितिकरण से युक्त जानना चाहिए। पुरुषार्थघोर कष्ट का विधान है जो योग्य नहीं है, यदि यह न सिद्धयपाय मे अपने साथ परके भी स्थितिकरण का निर्देश होता तो सब संगत था' इस प्रकार आहेत मतके विषय में किया गया है"। रत्नकरण्डक के अनुसार सम्यग्दर्शन निन्द्य बिचार न करना, इसे निविचिकित्सता कहा जाता अथवा चारित्र से च्युत होते हुए प्राणियो को जो धर्मानुरागी है। पुरुषार्थसिद्ध घुपाय मे भूख, प्यास, शीत व उष्ण विद्वज्जनो के द्वारा पुन. उसमे स्थापित किया जाता है, प्रादि अनेक प्रकार के भावों मे तथा मल-मूत्रादि द्रव्यो में इसे स्थितिकरण कहा गया है। घृणा न करने को निविचिकित्सित अंग कहा गया है। वात्सल्य -जो मोक्षमार्ग के विषय में साधकभूत
अमूढदृष्टि-जो सब कर्मभावो मे-कर्मजनित बाह्य- सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनो मे अनुराग करता विषयों मे-मूढता को प्राप्त नहीं होता है वह अमूढदृष्टि है, अथवा मोक्षमार्ग के साधक साधु जनो से अनुराग करता सम्यग्दष्टि कहलाता है। रत्नकरण्डक में कहा गया है है उसे वात्सल्य गुण से युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। कि दुःखो के मार्गभूत कुमार्ग-मिथ्यादर्शन, ज्ञान और रत्नकरण्डक के अनुमार अपने समूह में वर्तमानचारित्र-की तथा उक्त कुमार्ग के प्राराधकों की मन, साधर्मिक-जनों का भक्तिपूर्वक निष्कपटता से यथायोग्य वचन व काय से प्रशंसा व स्तुति प्रादि न करना, इसे प्रादर-सत्कार करना, यह वात्सल्य का लक्षण है" । तत्त्वार्थअमूढदृष्टि कहा जाता है । एकान्तवादियो के द्वारा प्रणीत वातिक मे जिनप्रणीत धर्मविषयक अनुराग को तथा पुरुमिथ्या मतों की योग्य परीक्षा करते हुए उनमे युक्ति- पार्थसिद्धयपाय में अहिंसाधर्म के साथ सामिकविषयक हीनता को देखकर मोह को प्राप्त न होना-उन्हे अग्राह्य अनुराग को भी वात्सल्य कहा गया है। समझना, यह तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार उक्त प्रमूढ
६. समयप्रा. २५१. १०. रत्नक. १५ दृष्टि का स्वरूप है।
११. त. वा. ६, २४,१, पु. सि. २७. १. रत्नक. १२. २. समयप्रा. २४६. ३. रत्नक. १३. १२. समयप्रा. २५२; त. वा. ६, २४, १. ४. त. वा. ६, २४, १. ५. पु. सि. २५. १३. पु.सि. २८. १४. रत्नक. १६. १५. समयप्रा. २५३. ६. समयप्रा. २५०.
७. रत्नक.१४. १६. रत्नक. १७; दशवं. नि. ह. वृत्ति १५२, पृ. १०३. ५. त. वा. ६, २४, १.
१७. त. वा. ६, २४, १; पु. सि. २६.