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________________ रामवल्लभ सामागो सेन परम्परा के कुछ अज्ञात साधु जयपुर के समीप स्थित पुराने प्लाट के हनुमान जी १२वीं शताब्दी की तिथियुक्त मूर्ति है किन्तु सामान्यतः के मन्दिर से हाल ही मे २ शिलालेख मुझे मिले है। ये मूर्तियों का प्रादान-प्रदान होता रहता है। प्रतएव यह लेख अब तक अज्ञात है। इनमें सेन परम्परा के कुछ कहना कठिन है कि यह मूर्ति कहाँ से प्राप्त हुई थी। अज्ञात साधुओं के नाम है। जयपुर और आस-पास के जयपुर के पास-पास जहाँ से ये शिलालेख मिले हैं क्षेत्र में दिगम्बर जैन धर्म का प्रचलन लम्बे समय से सम्भवत: प्राचीन स्थल रहा होगा। इस स्थल का नाम रहा है। सामान्यतः यह विश्वास किया जाता रहा है कि आजकल "झामड़ो नी" कहा जाता रहा है। यह जयपुर यहाँ जैन धर्म १६वीं शताब्दी से ही विशेष रूप से प्रकाश से २ मील दूर है और पुराने घाट के पास है। यह मे पाया है किन्तु इन लेखों के मिल जाने से यह स्पष्ट मन्दिर प्राचीन स्थापत्य कला का अच्छा नमूना है। इस हो गया है कि जैन धर्म का प्रचलन यहा १२वी शताब्दी समय इसे शिव मन्दिर में परिवर्तित कर दिया गया है। के पूर्व भी था। पामेर के एक मन्दिर में पीतल की इसके स्तम्भों पर घट पल्लव आदि फलक अंकित है, की 'ये पुण्यशाली है, इनका मनुष्यजन्म पाना सफल है' सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिक में उक्त दोनों में इत्यादि प्रकारसे प्रशंसा (वर्णवाद) करना, इसका नाम भेद दिखलाते हुए कहा गया है कि मन से मिथ्यादष्टि के परपाषण्डप्रशंसा है। ज्ञान और चारित्र गुणों के प्रगट करने का नाम प्रशंसा प्रन्यदृष्टिसंस्तव-उक्त क्रियावादी प्रादि मिथ्या- तथा उनके भूत-प्रभूत गुणो के कथन का नाम संस्तव है, दृष्टियों के साथ रहकर परस्पर सभाषण प्रादि रूप परि. यह उन दोनों में भेद है। चय बढाना, इसका नाम अन्यदृष्टिसस्तव है। इस प्रकार उक्त पाच शंकादि उस सम्यग्दर्शन के तत्त्वार्थभाष्य मे प्रशसा और संस्तव मे विशेषता दिख- अतिचार है, जो उसे मलिन करने वाले है। कारण कि लातेहा कहा गया है कि भाव से (मन से) ज्ञान और दर्शन शकादि के रहते सर्वज्ञ व वीतराग जिन पर अविचल गणों के प्रकर्ष को प्रगट करना, इसे प्रशसा कहा जाता श्रद्धा रह नही सकती, और बिना श्रद्धा के उस सम्यक्त्व है तथा सोपध और निरोपघ भूत गुणो को वचन से के रहने की भी सम्भावना नही रहती। कहा तो यहां कहना, इसे सस्तव कहा जाता है। तक गया है कि जिसे सूत्रनिर्दिष्ट केवल एक पद व अक्षर १. परपासंडपसंसा सक्काइणमिह वन्नवामो । भी नही रुचता है. भले ही उसे शेष सब क्यों न रुचता उ. श्रा. प्र.६८ हो; फिर भी उसे मिथ्यादष्टि जानना चाहिए। * २. संस्तवः-तैः सहकत्र सवासात् परिचयः परस्पराला. ४. वाड-मानसविषयभेवात् प्रशंसा-सस्तवभेवः । मनसा पादिजनितः। त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१८; श्रावक- मिथ्यादृष्टि ज्ञान-चारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा। भूताप्रज्ञप्ति में इसका निर्देश 'परपाषण्डसंस्तव' नाम से भूतगुणोद्भावनवचनं संस्तव इत्ययमनयो दः । किया गया है । यथा-तेहिं सह परिचनो जो संथवो त. वा. ६, २३, १. होइ नायवो ॥८॥ ५. संशयो मिथ्यात्वमेव । यथाह-पयमक्खरं पि एक्कंपि ३. ज्ञान-दर्शनगुणप्रकर्षोभावन भावतः प्रशसा । सस्त- जो न रोएइ सुत्तनिद्दिट्ठ। सेसं रोयतो विहु मिच्छ वस्तु सोपघं निरुपचं च भूतगुणवचनमिति । त. भा. द्दिट्टी मुणेप्रवो ॥ त. भा. हरि. व सिद्ध. वृत्ति ७-१८, पृ.१०२. (७-१८) में उद्धृत ।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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