________________
२२०, बर्ष २४,कि. ५
अनेकान्त
है, जो दिगबर परंपरा मे ७वी विद्यादेवी काली पोर ११वें प्राकृतिकी ऊपरी दाहिनी व बायी भुजामों में क्रमशः परशु तीर्थकर श्रेयासनाथ की यक्षिणी गौरी के वाहन के रूप में मोर सनाल कमल प्रदर्शित है, जबकि निचली वाम भुजा वणित है। चौथी मूर्ति, जिसका वाहन नष्ट हो गया है, से अभय मुद्रा व्यक्त है । देवता की दाहिनी मजा का के ऊपरी दोनो भुजानो मे सनाल कमल और निचली प्रायुध भग्न हो गया है । बायें कोने की प्राकृति के निचले दाहिनी व बायी भुजामों में क्रमश: अभय मुद्रा और कमन्डलु दोनों हाथ खन्डित हो चुके है और ऊपरी दोनों भजामों प्रदर्शित है। वाहन के अभाव में भुजाम्रो मे स्थित कमल मे पूर्ववत परश और सनाल कमल प्रदर्शित है। दोनों ही के प्राधार पर इसकी पहचान लक्ष्मी से की जा सकती प्राकृतियों का मुख मण्डल काफी अस्पष्ट है । इन प्राकृ
तियों की सभावित पहचान हाथों में प्रदर्शित परश और अब हम दाहिनी द्वार शाखा की मूर्तियों को देखेंगे।
तुन्दीलेपन के प्राधार पर प्रादिनाथ के यक्ष गोमूख से की कार से पहली मूर्ति की ऊपरी दाहिनी व बायों भुजानों जा सकती है, पर माश्चर्य की बात है कि अन्य मतियों के
मनाल कमल और पुस्तक व कमल प्रदशित है, जबकि विपरीत प्राकृति गोमुख नहीं है, वैसे मुखाकृति के काफी अनुरूप भुजामों में अभय मुद्रा प्रोर कमण्डलु चित्रित है मस्पष्ट होने के कारण इसके गोमुख न रहे होने के बारे देवी के वाम पाव में उत्कीर्ण प्राकृति श्वान (?) प्रतीत में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। होती है, जिसके आधार पर देवी की पहचान संभव नही चौखट पर उत्कीर्ण बाये कोने की पुरुष प्राकृति के प्रतीत होती है, अन्यथा पुस्तक व कमण्डलु के प्राधार बगल में गज लक्ष्मी को एक चतुर्भुज मति देखी जा सकती पर इसे सरस्वती का चित्रण स्वीकार किया जा सकता है। स्वतत्र रथिका मे स्थापित देवी पद्मासन मुद्रा में था। दूसरी प्राकृति, जिसका शीर्ष भाग खंडित है, की कमल पर आसीन है । देवी ने ऊपरी दोनों भजामों में दोनों दाहिनी भुजाएं भग्न हैं, और बायी भुजानो में कमल धारण किया है, जिस पर चित्रित दो गज माकृस्तक व कमल (ऊपरी) व फल (निचली) प्रदर्शित है। तियां मूर्ति के गज लक्ष्मी होने का निश्चित प्रमाण है । देवी के वाम पार्श्व मे उत्कीर्ण वाहन श्वान या मृग (?) देवी की निचली दोनों भुजाएं भग्न हो चुकी हैं । देवी की है। मृग स्वीकार करने पर बायीं द्वार शाखा की तीसरी
मुखाकृति, भुजाएं पयोधर काफी भग्न है। दाहिनी ओर पाति के समान ही इसकी पहचान ७वी विद्या देवी की रथिका मे स्थापित पद्मासन मुद्रा में पासीन देवी
या यक्षिणी गौरी से की जा सकती है, जिसकी की सभी भजाएं खण्डत है, पर पिछली मतियो की तरह मेष हाथों में प्रदर्शित समान प्रतीको से भी होती ही यह भी चतुर्भज रही होगी। वैसे इस प्राकृति का
तीसरी प्राकृति की चारो भुजाएं खण्डित हैं, और ऊपरी दाहिनी भुजा में कमल रहे होने क प्रमाण अभी जायी भोर प्रकित वाहन शुक है । यहा पुनः वाहन के शेष हैं। देवी के पासन के नीचे वाहन कूर्म प्रदर्शित है, आधार पर देवी की पहचान सभव नहीं है। चौथी प्राकृति निक
जिसके प्राधार पर देवी की पहचान वें तीर्थकर नो दाहिनी भजाएं संप्रति भग्न हैं पोर बायीं सविधिनाथ के यक्षिणी महाकाली से की जा सकती है। जागों में सनाल कमल (ऊपरी) पोर फल (निचली) पर सर पर प्रदर्शित तीन सर्पफणों का घटाटोप उपयुक्त प्रदर्शित है। देवी के बायीं भोर उत्कीर्ण मकर वाहन के र माघार पर देवी की पहचान १६वीं विद्यादेवी महामानसी
इन मतियों के अतिरिक्त बायें और दाहिने द्वार तीर्थकर वासुपूज्य की यक्षिणी गान्धारी, से की शाखामों के निचले भाग मे क्रमशः गगा और यमुना की जा सकती है।
चतुर्भुज प्राकृतियां उत्कीर्ण हैं। द्वार शाखामों के नीचे द्वार शाखामों के इन प्राकृतियों के अतिरिक्त चौखट गंगा और यमुना का अंकन खजुराहो के जैन और हिन्द के दोनों कोनों पर दो ललितासन मुद्रा मे मासीन चतुर्भज मदिरों दोनों ही में समान रूप से प्रचलित । परुष प्राकृतियां उत्कीर्ण है । दाहिने कोने की तुन्दीली गगा की केवल एक भुजा ही शेष है, जिसमें कमल