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खजराहो के मादिनाथ मन्दिर के प्रवेशद्वार की मतियां
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प्रदर्शित है। यमुना की चारों भुजाए खण्डित हो चुकी जाने का चित्रण है। फिर क्रम से गज, बैलोर सिंह है। गगा और यमना की प्राकृतियो के पीछे क्रमश: उनके को उत्कीर्ण किया गया है। तदपरान्त चतज जी को वाहन मकर और कूर्म चित्रित है।
कमल पर पासीन चित्रित किया गया है, जिसकी ऊपरी डोर लिटेन के ऊपर एक पैनेल (architrave) में भुजामो मे कमल प्रदर्शित है और निचली दाहिनी व बायीं तीर्थकरों की माता द्वारा उनके जन्म से पूर्व देखे गये १६ भुजाम्रो मे क्रमश: अभय मुद्रा और कमण्डलू चित्रित है। शभ स्वप्नों को अकित किया गया है, जिसका अंकन पांचवे स्वप्न माला के चित्रण के पश्चात् एकबतके मध्य मानसमस्त जैन मदिरों के प्रवेश द्वार पर देखा उत्कीर्ण अश्व छठे स्वप्न चन्द्रमा का अकन है। सातव जा सकता है। यहां यह स्पष्ट कर देना अप्रासंगिक न स्वप्न में, द्विभुज सूर्य को एक वत्त के मध्य में मकई प्रवेश दारों, जो नवीन मदिरों के निर्माण में उत्कुटिकासन मुद्रा में दोनो भूजाओं सनाल कमल धारण प्रयत और कई डोर लिटेल्स जो संग्रहालयों में किये उत्कीर्ण किया गया है। दवा स्वप्न मम् Tarat स्थित है व नवीन मन्दिरो में प्रयुक्त हुए है। दो कलश, १०वां दिव्य झील और ११वां समुद्र है, जिसमें खजुराहो में कई जैन मदिरों के अस्तित्व को प्रमा
कूर्म, मत्स्य प्रादि जल के जानवर दिखाए गए है। दो णित करते है, जिनकी संख्या किसी भी प्रकार २० छोरों पर दो सिंहों द्वारा धारित और मध्य में धर्मचक्र से कम नहीं थी। साथ ही श्वेतांबर परपरा में प्रच. युक्त सिंहासन १२वां स्वप्न है। १३वें स्वप्न विमान में लिन १४ स्वप्नों के विपरीत दिगबर परपरा क १६ प्रासीन द्विभुज प्राकृति की भजायों में प्रभय मुद्रा (दाहिनी) स्वप्नों का चित्रण खजुराहो के जैन शिल्प के दिगंबर मोर कमण्डलु (बायी) चित्रित है । १४वा स्वप्न नागेन्द्र । संप्रदाय से सम्बन्धित रहे होने का अकाट्य प्रमाण है। भवन है, जिसमें सर्पफणों के घटाटोपों से आच्छादित स्वप्नों के चित्रण के पूर्व बायी ओर तीर्थंकर की माता द्विभज नाग-नागी की प्राकृतिया अंकित है। दोनों की को शय्या पर लेटे और सेवक प्राकृतियों से वेष्टित दाहिनी भुजामों मे अभय मुद्रा और वायीं में कमण्डलु चित्रित किया गया है, जिसके बाद एक पुरुष और स्त्री चित्रित है। १५वा स्वप्न धनराशि एक ढेर के रूप में को वार्तालाप करते हुए उत्कीर्ण किया गया है, जो सभवतः उत्कीर्ण है। अन्तिम स्वप्न धूम्र बिहीन अग्नि के प्रकम में किसी साधू से तीर्थकर की माता द्वारा स्वप्नो के फल पूछे अग्नि शिखामों भामण्डल से युक्त द्विभुज अग्नि की १. महापुराण (पादिनाथ), सर्ग १२, Vv; हरिवंश- तुन्दीली श्मश्रुयुक्त प्राकृति की मजामों मे प्रभय मदा पुराण, सर्ग ८, श्लोक ५८-७४ ।
और सुक (?) प्रदर्शित है।
प्रात्म-विश्वास धरती में अनाज बोते समय किसान को कुछ प्रात्म-विश्वास की आवश्यकता प्राप्त होती है। वह सुन्दर मूल्यवान भविष्य पर भरोसा जो करता है । तब क्या धर्म का प्राचरण करने के लिए मानव को प्रात्म-विश्वास को आवश्यकता नहीं होती ? आत्म-विश्वास के विना उसका धर्माचरण भी ठीक नहीं हो पाता । प्रात्म-विश्वास या आत्मनिष्ठा ही मानव को सर्वत्र प्रतिष्ठा दिलाती, और आदर्श की ओर ले जातो है। और वही उसके धर्म में साधक बनती है।