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________________ [शेपास १० ८४] मृद्रा व्यक्त है, जिसमें अनामिका और अगुष्ट एक दूसरे को सरस्वती और लक्ष्मी के अतिरिक्त ब्रह्माणी की एक छू रहे है। देवी की निचली बाम भजा में कमण्डलु स्थित त्रिमुख मति, जिसकी चारो भुजाएं खण्डित हैं, पार्श्वनाथ है। मात्र चक्र के प्राचार पर ही इसकी पहचान निविवाद मंदिर के उनरी भित्ति पर लक्ष्मी अकन के ऊपर उत्कीर्ण रूप से चक्रेश्वरी से की जा सकती है। देवी के दाहिने है। सामान्य प्रलकरणो से युक्त देवी त्रिभंग मुद्रा में एक स्कन्ध के ऊपर प्रदशिन दूसरी प्राकृति के ऊपरी दोनों पीठिका पर खडी है। देवी के दोनो पाश्वों में तीर्थकरों भजायो मे अर्धविकमित कमल (दाहिना) और पुस्तक को दो खडी (नग्न) प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। देवी के वाम बाया) प्रदर्मित है, जब कि निचले दोनो हाथो में अभय चरण के समीप दो स्त्री उपामक प्राकृतियाँ चित्रित है। (दाहिना) और मातुलिंग (बाया)स्थित है । पुस्तक की पूर्व प्रतिमा के अनुरूप ही मध्यवर्ती ब्रह्माणी के दोनों उपस्थिति नि मन्देह देवी के सरस्वती होने की सूचक है। स्कन्धों के ऊपर चतुर्भज प्रासीन देवियो को उत्कीर्ण किया इन ग्रामीन प्राकृतियो के बगल में दोनो कोनो पर तीर्थ- गया है। दोनो ही दवियो की ऊपरी दो भुजानों ये कमल करो की दो बडी (नग्न) प्राकृतिया उत्कीर्ण है । इस और निचले दाहिने में अभय मुद्रा प्रदर्शित है। दाहिनी प्रकार इस मति में सरस्वती और चक्रेश्वरी को निश्चित ग्रोर की प्राकृति की नीचली वाम भजा मे जहां बीज पहचान के कारण मध्यवर्ती मल आकृति का लक्ष्मी होना पूरक (फल) चित्रित है, वही बायी ओर की माकति की स्वय मित्र है, क्योकि इन्ही तीन देवियो को कुछ एक भुजा में कमण्डल स्थित है। इन दोनों ही प्राकृतियो की अन्य देवियों के साथ खजुराहा के जैन शिल्य में बहुलता से पहचान लक्ष्मी से करना ज्यादा उचित प्रतीत होता है। मूर्तिगत किया गया है। २५००वीं महावीर जयन्ती पर दि. जैन समाज का कर्तव्य दि. समाज का परम कर्तव्य है कि वह २५००वी महावीर जयन्ती पर कुछ ऐमा ठोस कार्य सम्पन्न करे। जिसमें महावीर के सिद्धान्तों का लोक में प्रचार व प्रसार हो सके। और ढाई हजार वर्षों में दि० जैन समाज ने जा कुछ कार्य किया उसका लेखा-जोखा करना भी आवश्यक है। साथ ही साहित्यिक प्रगति के लिए गास्त्र भडारो और मुति लेखो को ऐसी सूची तैयार करवा कर छपाई जा सके, जिरासे दि० शास्त्रो को गणना और भारतवर्ष के दिगम्बर मन्दिरों की मूर्तियो के लेखों का संकलन करवा कर प्रकाश में लाया जा सके योर जन ग्रन्थो की लिपि प्रशस्तियों तथा ग्रथ प्रशस्तियों कामकलन भी प्रकाशित हो सके । इन तीनों कार्यो के सम्पन्न हो जाने पर जैन इतिहाग को महत्वपर्ण सामग्री तैयार हो सकती है। उससे विभिन्न जातियों के इतिवृत्तों का सकलन करने में सहयोग प्राप्त हो सकेगा। प्राशा है समाज इस उपयोगी कार्य के लिए अपना आथिक सहयोग प्रदान करेगी, विद्वानों और संस्थाधिकारियो को भी पूरा सहयोग प्रदान करना चाहिए।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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