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________________ ४, वर्ष २४,कि.१ अनेकान्त तैकान्त, अपेक्षेकान्त-अनपेक्षकान्त, हेत्वकान्त-महेत्वकान्त, च्छेद के मारम्भ में जो ग्रन्थ-प्रशंसा में पद्य दिया है उसमें विज्ञानकान्त - बहिरकान्त, देवकान्त - पौरुषेयकान्त, उन्होंने इसका 'प्रष्टशती' नाम भी निर्दिष्ट किया है।' पापैकान्त - पुण्यकान्त, बन्धकारणकान्त - मोक्षकारणकान्त सम्भवत: आठ सौ श्लोक प्रमाण रचना होने से इसे उन्होने जसे एकान्तवादों की समीक्षापूर्वक उनमें सप्तभंगी (सप्त- 'अष्टशती' कहा है। इस प्रकार यह व्याख्या देवागम-विवृति, कोटियों की योजना द्वारा स्यावाद (कचिद्वाद) की प्राप्तमीमांसाभाष्य और प्रष्टशती इन तीन नामों से जैन स्थापना की गई है । स्याद्वाद की इतनी स्पष्ट और वाङ्गमय में विश्रुत है। इसका प्रायः प्रत्येक स्थल इतना विस्तृत विवेचना इससे पूर्व जैन दर्शन के किसी प्रथ में जटिल एवं दुरवगाह है कि साधारण विद्वानों का उसमे उपलब्ध नही होती।' सम्भवतः इसी से 'देवागम' स्याद्वाद प्रवेश सम्भव नहीं है। उसके मर्म एवं रहस्य को अवगत की सहेतुक स्थापना करने वाला एक अपूर्व एवं प्रभावक करने के लिए प्रष्टसहस्री का सहारा लेना अनिवार्य है। ग्रन्थ माना जाता है और उसके स्रष्टा प्राचार्य समन्तभद्र भारतीय दर्शन-साहित्य में इसके जोड़ की रचना मिलना को 'स्याद्वादमार्गाग्रणी" कहा जाता है। व्याख्याकारों ने दुर्लभ है। न्याय-मनीषी उदयन की न्याय कुसुमांजलि से इसपर अपनी व्याख्याएँ लिखना गौरव समझा और अपने इसकी कुछ तुलना की जा सकती है । अष्टसहस्री के को भाग्यशाली माना है। अध्ययन मे जिस प्रकार कष्टसहस्री का अनुभव होता है व्याल्याएं उसी प्रकार इस अष्टशती के एक-एक स्थल को समझने इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गयी है, जैसा कि मे भी कष्टशती का अनुभव उसके अभ्यासी को होता है । हम पहने उल्लेख कर पाए है । पर माज तीन ही उपलब्ध २. देवागमालकार हैं और वे निम्नप्रकार है: यह दूसरी व्याख्या ही इस निबन्ध का विषय है। १. देवागमविवृति (मष्टशती), २. देवागमा- इस पर हम आगे प्रकाश डाल रहे है। लंकार (प्रष्टसहस्री) और ३. देवागमवृत्ति । ३. देवागम-वृत्ति १. देवागमविवृति यह लघु परिमाण की व्याख्या है। इसके कर्ता प्रा. इसके रचयिता प्रा० प्रकलंकदेव हैं । यह उपलब्ध वसुनन्दि है। यह न प्रष्टशती की तरह दुरवगम है और व्याख्याओं में सबसे प्राचीन और प्रत्यन्त दुरूह व्याख्या है। न प्रष्टसहस्री के समान विस्तृत एवं गम्भीर है। कारिपरिच्छेदों के अन्त में जो समाप्ति पुष्पिका वाक्य पाये जाते कानों का व्याख्यान भी लम्बा नही है और न दार्शनिक हैं उनमे इसका नाम 'प्राप्त-मीमांसा-भाष्य' (देवागम-भाष्य) विस्तृत ऊहापोह है। मात्र कारिकाओं और उनके पदभी उपलब्ध होता है।' विद्यानद ने प्रष्टसहस्रीके तृतीय परि वाक्यों का अर्थ तथा कही-कहीं फलितार्थ प्रतिसक्षेप में प्रस्तुत किया गया है । पर हाँ, कारिकानों के हार्द को १. 'षटखण्डागम' में 'सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता' समझने में यह वृत्ति देवागम के प्राथमिक अभ्यासियों के (ध० पू० १ पृ) जैसे स्थलों में स्यावाद का स्पष्टतया लिए अत्यन्त उपकारक एव विशेष उपयोगी है । वृत्तिकार विधि और निषेध द्रन दो ही वचन प्रकारों प्रति- ने अपनी इस वृत्ति के अन्त मे लिखा है कि 'मै मन्द बुद्धि पादन पाया जाता है। प्रा० कुन्दकुन्द ने इन दो में । ४. अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि सक्षेपात् । पाँच वचन प्रकार और मिलाकर सात वचन प्रकारों विलसद कलंकधिषणः प्रपंचनिचितावबोद्धव्या ।। से वस्तु-निरूपण का निर्देश किया है। पर उसका सष्टस० पृ० १७८। विवरण एवं विस्तृत विवेचन नहीं किया । (पंचास्ति 'श्रीमत्समन्तभद्राचार्यस्य.............देवागमाख्यायाः गा० १४)। कृतेः संक्षेपभूतं विवरणं कृतं श्रुतविस्मरणशीलेन २. विद्यानन्द, अष्टस० पृ० २६५ । वसुनन्दिना जडमतिनाऽऽत्मोपकाराय।'-देवागमवृत्ति ३. 'इत्याप्तमीमांसाभाष्ये दशमः परिच्छेदः ॥छ०१०॥' पृ० ५०, स. जैन ग्रन्थमाला, काशी। १०
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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