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भारतीय दर्शन को एक अप्रतिम कृति प्रष्टसहस्त्री
और विस्मरणशील व्यक्ति हैं। मैंने अपने उपकार के लिए सहस्री' देवागम की दूसरी उपलब्ध व्याख्या है। देवागम ही 'देवागम' कृति का यह सक्षेप मे विवरण किया है।' का अलकरण (व्याख्यान) होने से यह देवागमालकार या उनके इस स्पष्ट प्रात्म-निवेदन से इस वत्ति की लघुरूपता देवागमल कृति तथा प्राप्तमीमासालकार या प्राप्तमीमासाऔर उसका प्रयोजन प्रवगत हो जाता है।
लकृति नामो से भी उल्लिखित है और ये दोनो नाम यहाँ उल्लेखनीय है कि वसुनन्दि के समक्ष देवागम की अन्वर्थ हैं। 'प्रष्ट सहस्री' नाम भी पाठ हजार श्लोक ११४ कारिकानों पर ही मष्टशती और प्रष्टसहस्री उप- प्रमाण होने से सार्थक है । पर इसकी जिस नाम से विद्वानों लब्ध होते हुए तथा 'जयति जगति' आदि श्लोक को में अधिक विश्रुति है पौर जानी-पहचानी जाती है वह विद्यानन्द के निर्देशानुसार किसी पूर्ववर्ती प्राचार्य की नाम 'अष्टसहस्री' ही है : उपर्युक्त दोनों नामों की तरह देवागम व्याख्या का समाप्ति-मङ्गलपद्य जानते हुए भी 'अष्ट सहस्री' नाम भी स्वयं विद्यानन्द प्रदत्त है।' मुद्रित उन्होने उसे देवागम की ११५ वीं कारिका किस प्राधार प्रति' के अनुसार उसके दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, पर माना और उसका भी विवरण किया? यह चिन्तनीय सातवे, आठवे और दशवे परिच्छेदो के प्रारम्भ में तथा है। हमारा विचार है कि प्राचीन काल मे साधुप्रो मे दशवे के अन्त मे जो अपनी व्याख्या-प्रशंसा मे एक-एक देवागम का पाठ करने तथा उसे कण्ठस्थ रखने की पद्य विद्यानन्द ने दिए हैं उन सब मे 'प्रष्टसहस्री नाम परम्परा रही है। जैसा कि पात्रकेशरी (पात्रस्वामी) की उपलब्ध है। नववें परिच्छेद के प्रादि में जो प्रशसा-पद्य कथा में निर्दिष्ट चारित्रभूषण मुनि को उसके कण्ठस्थ है उसमें भी 'प्रष्टसहस्री' नाम अध्याहृत है क्योंकि वहाँ होने और अहिच्छत्र के श्री पार्श्वनाथ मन्दिर मे रोज पाठ 'सम्पादयति' क्रिया तो है, पर उसका कर्ता कण्ठत: उक्त करने का उल्लेख है। वसुनन्दि ने देवागम की ऐसी प्रतिपर नहीं है. जो अष्टसहस्री के सिवाय अन्य सम्भव नही है। से उसे कण्ठस्थ कर रखा होगा, जिस मे ११४ कारिकाओं रचना शैली और विषय-विवेचन के साथ उक्त अज्ञात देवागम व्याख्या का समाप्ति मङ्गल इसकी रचना-शैली बडी गम्भीर और प्रसन्न है। भाषा पद्य भी किसी के द्वारा सम्मिलित कर दिया गया होगा पनिमाजित और संयत है। व्याख्येय के अभिप्राय को व्यक्त और उस पर ११५ का संख्याङ्क डाल दिया होगा। वसुनन्दि करने के लिए जितनी पदावली की अावश्यकता है उतनी ने अष्टशती और अष्टसहस्री टीकाप्रो पर से जानकारी ही पदावली प्रयुक्त की गई है। वाचक जब इसे पढ़ता है एव खोज बीन किये विना देवागम का अर्थ हृदयगम रखने तो एक अविच्छिन्न और अविरल गति से प्रवाहपूर्ण के लिए यह देवागमवृत्ति लिखी होगी और उस मे कण्ठस्थ घारा उसे उपलब्ध होती है जिसमें वह अवगाहन कर सभी ११५ कारिकानों का विवरण लिखा होगा । और प्रानन्द-विभोर हो उठता है। समन्तभद्र और प्रकलंक इस तरह ११५ कारिकामों की वृत्ति प्रचलित हो गयी के एक-एक पद का मर्म तो स्पष्ट होता ही जाता है जान पड़ती है।
१. प्राप्तपरीक्षा वृ. २३३, २६२, अष्टस. पृ. १ मङ्गल यह वृत्ति एक बार सन् १९१४, वी० नि० स०२४४०
पद्य तथा परिच्छेदान्त में पाये जाने वाले समाप्ति में भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था काशी से
पुष्पिकावाक्य । सनातन जैन ग्रन्थ माला के अन्तर्गत ग्रन्थाङ्क ७ के रूप मे २. 'जीयादष्टसहस्री...' (प्रष्ट. पृ. २१३), 'साष्टसहस्री तथा दूसरी बार निर्णय सागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हो सदा जयतु ।' (प्रष्ट. २३१)। चुकी है। पर अब वह अलभ्य है। इसका पुन: अच्छे ३. १४५४ वि. सं. की लिखी पाटन-प्रति में ये प्रशंसा. संस्करण के रूप में मुद्रण अपेक्षित है।
पद्य परिच्छेदों के अन्त में हैं। देवागमालंकारः प्रष्टसहस्त्री
४. सम्यगवबोधपूर्व पौरुषमपसारिताखिलानर्थम । प्रब हम अपने मूल विषय पर पाते हैं । पीछे हम
देवोपेतमभीष्टं सर्व सम्पादयत्याशु ।।-प्रष्टस. यह निर्देश कर पाए है कि भा० विद्यानन्द की 'प्रष्ट
पृ. २५६।